|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *तत्त्वज्ञनीति* " ( १५२ )
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*श्लोक*----
" उभ्याभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः ।
तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् " ।।
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*अर्थ*----
दोनों पंखों से पंछी जैसे आकाश में संचार करते है । वैसे ही ज्ञान और कर्म इनकी जोडी मिलके ही मनुष्य को सर्वोच्च पद देते है ।
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*गूढ़ार्थ* -------
अध्यात्म में भक्ति , कर्म , ज्ञान और योग यह सभी सीढ़ियाँ आत्मोन्नति और फिर आगे मोक्ष मार्ग पर चलने के लिए उपयुक्त मानी गयी है । किन्तु यहाँ पर सुभाषितकार ने ज्ञान और कर्म की जोड़ी पर सुभाषित में लिखा है ।
सुभाषितकार कह रहा है की-- सिर्फ ज्ञान अर्जन करना काफी नही है तो उसके साथ कर्म करना भी अत्यंत आवश्यक है ।
अब कर्म की व्याख्या काफी विस्तृत है । पर यहाँ ज्ञान का अहंकार ना हो इसलिए कर्म करने के लिए कहा गया है यह बहुत महत्वपूर्ण बात कही गयी है । हमेशा ही यह देखने को मिलता है कि ज्ञानी व्यक्ति अहंकारी होती है अगर वह व्यक्ति अच्छे कर्मों में खुद को व्यस्त कर लेगी तो वह ज्ञान और कर्म के द्वारा काफी ऊंचे पद पर पोहचती है ।
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डाॅ . वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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