*वेदोज्ज्वला - ३८*
(विवाह की नौवीं वैवाहिक वर्षगाँठ पर विशेष)
*विषय - गृहस्थ में पति 'सम्राट्' और पत्नी 'स्वराट्' होते हैं।*
*ऋषिः -* गोतम ऋषिः
*देवता -* जातवेदाः देवताः
*छन्दः -* निचृद्बृहती
*स्वरः -* मध्यमः
*इषे राये रमस्व सहसे द्युम्नऽऊर्जे अपत्याय।*
*सम्राडसि स्वराडसि सारस्वतौ त्वोत्सौ प्रावताम् ॥*
- यजुर्वेद १३/३५
*पद पाठः -*
इषे। राये। रमस्व। सहसे। द्युम्ने। ऊर्जे। अपत्याय। सम्राडिति सम्ऽराट्। असि। स्वराडिति स्वऽराट्। असि। सारस्वतौ। त्वा। उत्सौ। प्र। अवताम् ॥
*पदार्थः -*
*सम्राट् असि =* हे पुरुष! [पति] जो तू विद्यादि शुभगुणों से स्वयं प्रकाशमान है,
*स्वराट् असि =* हे स्त्रि! [पत्नी] जो तू अपने आप विज्ञान सत्याचार से शोभायमान है,
*इषे =* सो तुम दोनों विज्ञान
*राये =* धन
*सहसे =* बल
*द्युम्ने =* यश और स्वास्थ्य
*ऊर्जे =* पराक्रम और ऊर्जा
*अपत्याय =* सन्तानों की प्राप्ति के लिये
*रमस्व =* रमण करो, यत्न करो।
*सारस्वतौ =* वेदवाणी के उपदेश में कुशल होके तुम दोनों स्त्री-पुरुष इन स्वशरीर और अन्नादि पदार्थों की
*उत्सौ =* कूपोदक के समान कोमलता को प्राप्त होकर
*प्रावताम् =* रक्षा आदि करो, यह
*त्वा =* तुम को उपदेश देता हूँ।
*भावार्थः -* विवाह करके स्त्री-पुरुष दोनों आपस में प्रीति के साथ विद्वान् होकर पुरुषार्थ से धनवान् श्रेष्ठ गुणों से युक्त होके एक-दूसरे की रक्षा करते हुए धर्म्मानुकूलता से वर्त्त के सन्तानों को उत्पन्न कर इस संसार में नित्य क्रीड़ा करें।
*मन्त्र की मुख्य बातें -*
१) गृहस्थाश्रम में पति सम्राट है
२) गृहस्थाश्रम में पत्नी स्वराट है
३) पति-पत्नी अन्न में रमण करें
४) पति-पत्नी ऐश्वर्य में रमण करें
५) पति-पत्नी बल में रमण करें
६) पति-पत्नी यश में रमण करें
७) पति-पत्नी ऊर्जा में रमण करें
८) पति-पत्नी सन्तानों में रमण करें
९) पति-पत्नी मन और वाणी से एक दूसरे की रक्षा करें।
*व्याख्याः -* यजुर्वेद का यह मन्त्र स्त्री-पुरूष को विवाह के उपरान्त उत्तमता से व्यवहार करने का निर्देश दे रहा है। पुरुष और स्त्री गृहस्थ के जिम्मेदारी को ग्रहण करके बहुत क्लिष्ट जीवन यापन न करें इसको थोड़ा सरल बनायें। लक्ष्य की प्राप्ति के लिये वर्तमान दिनचर्या को न बिगाडे़। सन्तानोत्पत्ति के समय को बहुत आगे धकेलें। कई जोड़ा तो ऐसे होते है उनका लगता है पूरे गृहस्थाश्रम की धरती का भार उनके कन्धों पर आ गया है, इसलिए वे हसना मुस्कराना भी भूल जाते हैं। भोजन, शयन, पूजन सबकी अवहेलना करते हैं। अपने बच्चों को बडे होते हुए भी ठीक से नहीं देख पाते हैं। वे वर्तमान प्राप्त सभी सुविधाओं और अवसरों को छोटा और अपर्याप्त समझकर उसको बडा करने में वर्तमान और भविष्य दोनों को बिगाड़ लेते हैं। इसलिए हे युवा गृहस्थों! दुरदृष्टि रखो, दूर की सोचो आने वाले कल की भी चिन्ता करो, किन्तु लड़की पैदा होने से पहले उसके विवाह की चिन्ता मत करो। मैं ऐसे महानुभाव को जानता हूँ जिन्होंने अपने एक मात्र पुत्री के विवाह की तैयारी अनेक वर्षों से की थी उसके लिए बहुत सपने सजोये थे। बहुत कुछ वह सोचते और लोगों से कहते थे। तो लोग उनसे कहते आप बहुत कुछ तैयारी कर रहे हो। किन्तु उनकी पुत्री ने प्रेम विवाह कर लिया। उनके धन का उपयोग विवाह बावत कुछ भी न हो सका। इसका मतलब ये नहीं है कि माता-पिता तैयारी न रखें। बुद्धिमान तो तैयारी रखता है। पर किस शर्त पर? तो आइये बन्धुओं वेद के इस मन्त्र पर विचार करते हैं यह मन्त्र आज के २१ वीं सदी के विवाहित युवा युवतियों से क्या कहना चाहता है थोड़ी वेद की भी सुन लेते हैं।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से पहली बात कही है -*
*१) सम्राडसि -* हे पति त्वं सम्राट् असि! हे पति तू गृहस्थाश्रम में सम्राट् है। सं उपसर्ग पूर्वक राजृ दीप्तौ धातु से सम्राट् शब्द बनता है। सम्यक् तया राजति दीप्यते प्रकाशते स सम्राट्। गृहस्थाश्रम में इसका तात्पर्य होगा - यः गृहस्थाश्रमे सम्यक् तया राजति प्रजां पालयति, स्व गुणेन दीप्यते, पुरुषार्थेन प्रकाशवान् भवति स सम्राट् 'पतिः'। जो गृहस्थाश्रम में राजा होकर अपनी प्रजा रुपी सन्तानों का पालन, अपने अच्छे गुणों के कारण यश और कीर्ति से देदीप्यमान होता है। और पुरुषार्थ परिश्रम से प्रकाशित होता है वह उस गृहस्थ का पति सम्राट् कहलाता है। कितनी बडी बात है वेद ने गृहस्थ में पति को सम्राट् की तरह सोचने बनने और तदनुकूल चलने के लिए कहा है। जैसे तपस्वी, संयमी, उदार और प्रजापालक राजा श्रेष्ठ होता है ऐसे ही गृहस्थ में पति भी राजा के समान होकर एक सम्राट् के सामान अपने गृहस्थ का संचालन करे।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से दूसरी बात कही है -*
*२) स्वराडसि -* हे पत्नी त्वं स्वराडसि! हे स्त्रि तू गृहस्थाश्रम में स्वराट् है, स्वयं राजति, चकास्ति, दीप्यते स स्वराट् या गृहेषु स्वयमेव राजति, स्व गुणाकर्षेण स्वात्मानं चकास्ति, स्वकर्मणा दीप्यते सा 'स्वराट् पत्नीः'। जो अपने सुन्दर निर्णयों से घर पर स्वयमेव राज करती है। जो दूसरों पर निर्भर नहीं रहती वह स्वराट् है। महर्षि दयानन्द ने अर्थ किया है जो विज्ञान और सत्याचार से घर में शोभायमान होती है। पत्नी का कर्त्तव्य है कि वह घर के सभी कामों में सिद्ध हस्त होकर सत्याचरण पूर्वक सेवाभाव से सभी कार्यों को अनुष्ठित करे। जिससे उसके विचार फलते फुलते रहे और वह मन से प्रसन्न रहे।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से तीसरी बात कही है -*
*३) इषे रमस्व -* अन्न में रमण (यत्न) करो। मन्त्र ने यह आदेश और आज्ञा दी है कि अन्न को गृहस्थाश्रम में प्रमुखता देकर इसको उपजाने में, संरक्षण में इसके दान और वितरण में यत्न करो। विवाह संस्कार के सप्तपदी विधि में वर वधू एक साथ सात पग बढाते हैं और ईश्वर से गृहस्थाश्रम को सुखी और समृद्ध रखने के लिए प्रत्येक पग धरते समय एक वस्तु की कामना करते है। जिसमें पहले कदम में वे कहते है - *"इषे एकपदी भव"* अर्थात् गृहस्थाश्रम में हमारा पहला कदम अन्न प्राप्ति के लिए हैं। अब आप लोग विचार कीजिए अन्न के बिना गृहस्थाश्रम का प्रारम्भ कैसे हो सकता है? हमारे यहाँ तो अन्न के भण्डार रखने की परम्परा रही है। अन्न समृद्धि का प्रतीक है। हम अन्न कमायें अन्न का उपभोग करें और अन्न दान करें। हम गुरुकुलों में अन्न दान करें। दान देने से अन्न कई गुना बढकर देने वाले को प्राप्त होता है। इसलिए अन्न को बर्बाद न करें।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से चौथी बात कही है -*
*४) राये रमस्व -* रायः इति धन नाम। राय कहते हैं धन को। पति-पत्नी धन में रमण करें, धन के लिए यत्न करें। सप्तपदी में तीसरा पद बढाते हुए पति-पत्नी कहते हैं *"रायस्पोषाय त्रिपदी भव"* धन प्राप्ति के लिए हम तीसरा पग धरते हैं। गृहस्थाश्रम में धन के बिना कोई काम नहीं चलता। धन कमाना कोई तिरस्कृत कार्य नहीं हैं वह उत्तम कार्य है क्योंकि बिना पुरुषार्थ के धन नहीं मिलता है। किन्तु धन कमाने का रास्ता शुचिता वाला होना चाहिए। महर्षि दयानन्द ने संस्कार विधि के गृहाश्रम प्रकरण में गृहस्थों के लिए बहुत ही आवश्यक निर्देश दिया है उन्होंने मनु के प्रसिद्ध श्लोक को उद्धृत करते हुए लिखा है कि पवित्रता में धन की पवित्रता सबसे अधिक आवश्यक है -
*सर्वेषामेव शौचानां अर्थ शौचं परं स्मृतम्।*
*य अर्थे शुचिर्हि स शुचि नमृद्वारी शुचि शुचि।।*
*अर्थ -* जो धर्म ही से पदार्थों का संचय करना है वही सब पवित्रताओं में उत्तम पवित्रता अर्थात् जो अन्याय से किसी पदार्थ का ग्रहण नहीं करता वही पवित्र है, किन्तु जल, मृत्तिका आदि से जो पवित्रता होती है, वह धर्म के सदृश उत्तम नहीं होती ।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से पाँचवीं बात कही है -*
*५) सहसे रमस्व -* पति-पत्नी तुम दोनों बल में यत्न करो। बलमुपास्व बल की उपासना करो। उत्तम पौष्टिक भोजन का सेवन करके अपनी दिनचर्या में उत्तम रहो नित्यप्रति व्यायाम करो शारीरिक श्रम और कठोर साधना करते हुए अपने शरीर को सुदृढ़ करो। भय और निर्बलता से गृहस्थाश्रम का संचालन नहीं होता है। हमारे गृह स्वामिनी को वीरसुः कहा गया है अर्थात् वीरों को जननी वाली हो। जब पति-पत्नी बलवान और साहसी होंगे। परिवार सुदृढ़ होता है। शत्रुओं की कुदृष्टि हम पर नहीं होती। यजमान यज्ञ में भगवान से प्रार्थना करते है कि 'सहोसि सहो मयि धेहि'।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से छठवीं बात कही है -*
*६) द्युम्ने रमस्व -* पति-पत्नी तुम दोनों यश में रमण करो। अर्थात् यश के लिए यत्न करो। देखिए धर्म पूर्वक प्रयत्न करने वाला व्यक्ति सदैव यश में रमण करता है, जो व्यक्ति यज्ञ, दान, तप, परमार्थ करता है, अपने अर्जित विक्रम को स्वात्मोन्नति और सामाजिक उन्नति के लिए व्यय करता है वह यशस्वी होकर परिवार और समाज में मान सम्मान पाता है। उसकी यशःकीर्ति सर्वत्र फैलती है। यश में मनुष्य का सुख और आयु निहित है। हमारे यहाँ यश को आशीर्वाद रुप में दिया जाता है। और कामना करते हैं कि आप धर्ममार्ग पर चलते रहो। यशस्वी जीवन जीओ।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से सातवीं बात कही है -*
*७) ऊर्जे रमस्व -* पति-पत्नी तुम दोनों ऊर्जा पराक्रम में रमण करो अर्थात् यत्न करो। बिना ऊर्जा के व्यक्ति परिवार को कुछ भी देने में समर्थ नहीं होता। ऊर्जा ऐसी क्षमता का नाम है जो उसे सभी कार्यों में सफल बनाती है। ऊर्जावान पति सकारात्मक होकर घर व्यापार और सन्तानों की उन्नति के लिए ऊर्जा का व्यय करता है। ऊर्जावान पत्नी सकारात्मक होकर सन्तानोंत्पत्ति गृहकार्य, भोजन निर्माण सफाई और बाहर जाकर नौकरी आदि करती हुई ऊर्जा लगाती है। किन्तु प्रश्न यह है कि ऊर्जा कहाँ से मिलती है? देखिए प्रथम दृष्ट्या तो ऊर्जा आती है भोजन के उत्तमता से पचने से, दूसरा प्राणायाम और प्रातः भ्रमण और व्यायाम करने से किन्तु आवश्यक उर्जा स्वाध्याय और ईश्वर की भक्ति से मिलती है। इससे व्यक्ति प्रेरित होता है उसके शरीर में शारीरिक बल और आत्मिक बल अर्थात् ऊर्जा आती है। फिर व्यक्ति उस ऊर्जा से लोक निर्माण और परिवार निर्माण के कार्य करता है।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से आठवीं बात कही है -*
*८) अपत्याय रमस्व -* हे पति-पत्नी तुम दोनों सन्तानों के लिए और सन्तानों में यत्न करो। कु सन्तानों की प्राप्ति के लिए यत्न करना और सन्तान प्राप्ति के पश्चात् उसके निर्माण में रमण और यत्न करों। माँ को देखना कभी बच्चे से खेलते हुए वह कितनी आनन्दित होती है वह बच्चे में इतना रम जाती है कि सबकुछ भूल जाती है अर्थात् अपनी थकान और परेशानियों को भूला देती है। और कभी कभी बच्चों के कारण इतना परेशान और दुखी हो जाती है मत पूछो। तो यही सन्तानों की उत्पत्ति और निर्माण में रमण भी है और यत्न भी है। सन्तानों की प्रति उनसे क्रीडा और आलिंगन सुख प्रद और हर्ष दायक है और उनका निर्माण चुनौती भी है। जैसे सरोवर के बाहर खडे होकर तैरना नहीं सीख सकते आपको उसमें उतरना ही पडता है तब जाकर जलक्रीडा का आनन्द मिलता है ऐसे ही सन्तान का आनन्द भी उसके साथ बच्चा बनने में उसके साथ गन्दा होने में रोने में और खेलने में है आप बाहर रहकर उसका निर्माण नहीं कर सकते। आपको सन्तानों के लिए खुद को मैदान में उतारना ही पड़ता है। किन्तु सन्तानों से सुख प्राप्त होता है उसकी छाव तले उनका निर्माण करना होता है।
*मन्त्र ने पति-पत्नी से नौवीं बात कही है -*
*७) त्वा सारस्वतौ उत्सौ प्रावताम् -* पति-पत्नी तुम दोनों (सारस्वतौ) वदेवाणी अथवा वेदज्ञान का अभ्यास करने वाले तथा अपनी वाणी में वेदों को स्थापित करने वाले (उत्सौ) उद्गम, निकास करने वाले होओ। अपने कण्ठ रुपी स्रोत से वेदज्ञान का उत्सर्ग करने वाले (प्रावताम्) एक दूसरे की रक्षा करो। मनो वै सरस्वान् वाक् सरस्वती एतौ सारस्वतौ उत्सौ - श० ७।५।१। अर्थ - यहाँ 'सारस्वतौ' से मन और वाणी का ग्रहण ग्रहण किया गया है। ऐसे ही तैत्तीरीय में "ऋक्साम वै सारस्वतौ उत्सौ" कहा है- विज्ञान व उपासना ही 'सारस्वत उत्स' हैं। ऋग्वेद ज्ञान और सामवेद उपासना है जो ज्ञान और उपासना को भली भांति जानता है वह वाणी से ज्ञान और मन से उपासना के लिए उद्यम करता है। गृहस्थाश्रम में पति-पत्नी दोनों वेदों को सम्यक् तया जानकर ही वाणी और मन से प्रबुद्ध होकर एक दूसरी की रक्षा करने में समर्थ हो पाते है। अतः गहस्थों को वेद को अपना धर्म मानकर वेदों की रक्षा करनी चाहिए क्यो रक्षीत वेद ही गृहस्थों की रक्षा कर सकता है। इसलिए संसार भर के दम्पत्ति आप लोग वेद की शरण में आइये। 'अनभ्यासेन वेदानां मृत्युर्विप्रान् जिघांसति'।
*आज मेरी और धर्मपत्नी उज्वला की नौवीं वैवाहिक वर्षगाँठ है।* इस नौवीं वैवाहिक वर्षगाँठ पर नौ बात बताने वाले उक्त वेदमन्त्र का चयन विचार करके ही किया है। हम दोनों भी इस मन्त्र के कहे अनुसार अपना गृहस्थाश्रम यापन करें। उज्वला तुम्हें यही कहना चाहूँगा कि हम दोनों पति-पत्नी अपने गृहस्थ के सम्राट् और स्वराट् हैं। जब हम दोनों परिश्रम और तपस्या पूर्वक वेद के मार्ग का अवलम्बन करेंगे तो निश्चित रुप से हम दोनों को गृहस्थाश्रम में सुख और आनन्द का अनुभव होगा। किन्तु जो चीजें परमात्मा के अधीन हैं जो हमारे वश में नहीं है उस बारें में ज्यादा सोचकर हमें परेशान नहीं होना चाहिए। जो कार्य हमारे हाथ में है जो चीजे हमारे वश (कंट्रोल) में हैं, हमे उसे कुशलता से सम्पन्न करना चाहिए। 'आयु' तो कर्मों का फल है। 'आयु' रुपी फल प्राप्त करने के लिए शुभ कर्म करने पडते है। हमारा प्रारब्ध और इस जन्म के कर्म इन दोनों से हमारी आयु निश्चित होती है। प्रारब्ध का निर्माता हम स्वयं होते हैं। हमें ईश्वरीय व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। प्रभु से दीर्घायु की प्रार्थना करते हुए। हमें तदनुकूल आचरण करना चाहिए। प्रभु से प्रार्थना है कि प्रभु हम दोनों को आप उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु और यशस्वी जीवन प्रदान करे। हम दोनों का जीवन श्रेष्ठ हो, हम दोनों वेद मार्ग पर चलें। इस जोडी को प्रभु आप लम्बी आयु दें। बस आपसे वैवाहिक वर्षगाँठ पर यही विनय करते हैं। उज्वला तुम्हें वैवाहिक वर्षगाँठ की बहुत बहुत शुभकामनायें।
*आचार्य राहुलदेवः*
आर्यसमाज बडाबाजार
कोलकाता
9681849419
२०/१२/२०२४ ई.
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