|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *नवरसवर्णनम्* " ( १६५ )
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" *रौद्ररसः* "
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*श्लोक*----
" स्पृष्टा येन शिरोरूहे नृपशुना पाञ्चालराजात्मजा
येनास्याः परिधानमप्यह्रतं राज्ञां कुरुणां पुरः ।
यस्योरः स्थलशोणितासवहं पातुं प्रतिज्ञात्वान्
सो ऽ यं मभ्दुजपञ्जरे निपतितः संरक्ष्यतां कौरवाः " ।। ( वेणीसंहारम् )
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*अर्थ*----
वीराग्रणी भीम गर्जना कर रहा है --- राजकुल में जन्मे इस आदमी ने इतना नीच कृत्य किया है की --- पाञ्चाल कन्या द्रौपदी के बालों को हाथ लगाया और कुरुराजा के सामने उसके वस्त्र खिचे उस समय मैने राजसभा में इसके वक्षःस्थल का रक्त पीने की जो प्रतिज्ञा की थी वही दुःशासन आज मेरी भुजाओं के बन्धन में कैद है । हे ! कौरवानों अगर आप लोगों में हिंमत होगी तो इसका रक्षण करके दिखाओ ।
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*गूढ़ार्थ*---
भीम का उग्र और रौद्र रूप यहाँ पर दिख रहा है । और वैसे भी वेणीसंहार नाटक का रस ही रौद्र है । संस्कृत साहित्य में एकमेव नाटक रौद्ररसप्रधान वेणीसंहार है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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