|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *तत्वज्ञाननीति* " ( ११० )
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*श्लोक*-----
" दारेषु किंचित् स्वजनेषु किंचित् गोप्यं वयस्येषु सुतेषु किंचित् ।
युक्तं वा न युक्तमिदं विचिंत्य वदेत् विपश्चिन्महतोऽनुरोधात् " ।।
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*अर्थ*----
पत्नी , रिश्तेदार , पुत्र , वयस्कर लोग इनको सब बाते खुलकर नही बतानी चाहिए । यह बताना जरूरी है क्या ? और वह कैसे बताया जाय ? यह सब सोचकर ही कहना चाहिए ।
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*गूढ़ार्थ*-----
घटी हुई सब घटनाएं या सुनी हुई सब बाते मुक्त मन से किसीको बताना योग्य नही रहता । परिस्थिति और व्यक्ति देखकर कुछ भाग गोपनीय रखना जरूरी होता है । क्यों कि अनावश्यक विपरीत परिणाम होने की संभावना रहती है । पत्नी ,पुत्र , आप्त कितने ही नजदीकी क्यों न हो उन्हे खुले मन से सबकुछ बताना घातक सिद्ध होता है । कुछ बाते प्रकट करने से झगड़ा होने की संभावना रहती है । जैसे-- किसी के गंभीर बिमारी खबर वृद्धों को नही बतानी चाहिए। उससे उनके मन पर विपरीत परिणाम हो सकता है । बच्चों के सामने कुछ विषय हमेशा ही टालने चाहिए । अनावश्यक माहिती देने के कारण विवाह टूट सकते है । इधर उधर की बातों के कारण पति-पत्नी में झगड़ा हो सकता है ।
इसलिए योग्य और अयोग्य जानकर ही कुछ बाते बतानी चाहिए और कुछ बाते गुप्त रखनी चाहिए ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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