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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( ४९ )
आज से नया विषय प्रारंभ कर रही हूँ। जिसका नाम है " *भारतीय दर्शन शास्त्र* "
" *भारतीय दर्शन शास्त्र* "
भारतीय आस्तिक दर्शनों में न्याय दर्शन को अग्रस्थान दिया जाता है। तो आज से न्याय दर्शन।
" *न्याय दर्शन* "
"गौतमस्य कणादस्य कपिलस्य पतंजलेः। व्यासस्य जैमिनेश्चापि दर्शनानि षडेव हि।।
इस सुप्रसिद्ध श्लोक में षड्दर्शनों के प्रवर्तकों की गणना में न्यायशास्त्र के सूत्रकार गौतम का निर्देश सर्वप्रथम किया है। न्यायशास्त्र का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन कहते है--
"प्रदीपः सर्वविद्यानाम् उपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता।।
"प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः"। यह न्यायशास्त्र का प्रथम मूलसूत्र है जिस के आधार पर, परीक्षा करते हुए, उसकी सत्यात्यता निर्धारित करना, इस शास्त्र का प्रयोजन है। जो विचार न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार सिद्ध नही होता वह अप्रामाणिक होने से सर्वथा अग्राह्य मानने की बुद्धिवादी विद्वानों की परंपरा होने से,इस शास्त्र का महत्त्व परंपरागत अध्ययन की पद्धती में विशेष माना जाता है।
"प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः"। इस व्याख्या के अनुसार न्यायशास्त्र को प्रमाणशास्त्र, प्रमाणविद्या, हेतुविद्या भी कहा गया है।
महर्षि गौतम इस शास्त्र के आद्य सूत्रकार है,तथापि इसका अस्तित्व उनसे प्राचीन काल में भी था। छान्दोग्य उपनिषद् में अनेक शास्त्रों की नामावलि में " *वाकोवाक्यम्" नामक शास्त्र का उल्लेख मिलता है। श्री शंकराचार्यजी ने "वाकोवाक्य"का अर्थ दिया है तर्कशास्त्र अर्थात् न्यायशास्त्र। इन नामों के अतिरिक्त इस शास्त्र का और एक नाम है,"आन्वीक्षिकी"। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजपुरुषों के लिए आन्वीक्षिकी, त्रयी,वार्ता और दण्डनीति इन चार विद्याओं का अध्ययन आवश्यक बताया है। कौटिल्य ने न्यायशास्त्र के अर्थ में ही " *आन्वीक्षिकी* " शब्द का प्रयोग किया है।
न्यायशास्त्र में खण्डन--मण्डन की परम्परा दिखाई देती है। गौतम के न्यायसूत्र से इस शास्त्र का प्रारंभ होता है। इस प्रथम ग्रन्थ में ही बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डन सूचित करने वाले कुछ सूत्र माने गये है। परंतु न्यायसूत्र का बौद्धमत से प्राचीनत्व कुछ विद्वान मानते है।
अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र पर ई.१७ वी शती में कुछ उल्लेखनीय टीका ग्रन्थ लिखे गये---
रामचन्द्र--न्याय रहस्यम्।,विश्वनाथ--न्यायसूत्रवृत्ति।,गोविन्द शर्मा--न्यायसंक्षेप।,जयराम--न्यायसिद्धान्तमाला।
न्यायदर्शन में नव्यन्याय की प्रणाली का प्रारंभ होने पर लिखी जाने के कारण इन टीकाओं का विशेष महत्व माना जाता है।
" *नव्यन्याय* "
ई.१२ वी शताब्दी तक सूत्र-भाष्य पद्धती से न्यायशास्त्र का अध्ययन करने की परंपरा चलती रही। परंतु १२ वी शताब्दी के महान् नैय्यायिक गंगेशोपाध्याय के तत्त्वचिन्तामणि नामक चतुःखण्डात्मक महनीय ग्रन्थ के कारण यह गतानुगतिक पद्धती समाप्त सी हो गयी।तत्त्वचिन्तामणि में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन न्यायशास्त्रोक्त चार प्रमाणों पर प्रत्येकशः एक खण्ड लिखा गया है। गौतम के न्यायसूत्र से लेकर आत्मा ,पुनर्जन्म,मोक्ष जैसे अध्यात्मिक विषयों की विस्तारपूर्वक चर्चा करने की जो पद्धति न्यायशास्त्र में रूढ हुई थी, वह गंगेशोपाध्याय के ग्रन्थ के कारण बंद हुई। अध्यात्मिकशास्त्र से अब न्यायशास्त्र पृथक् सा हो गया और "नव्यन्याय" का उदय हुआ।
क्रमशः आगे.........
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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