Monday, October 7, 2024

Chatusloki of Yamunacharya - Sanskrit

।। श्रीमद्यामुनमुनये नम:।।

श्रीचतुश्लोकी, श्लोक–4
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शान्तानन्तमहाविभूति परमं यद्ब्रह्मरूपं हरे-
मूर्तं ब्रह्म ततोऽपि तत्प्रियतरं रूपं यदत्यद्भुतम् ।
यान्यन्यानि यथासुखं विहरतो रूपाणि सर्वाणि
तान्याहु: स्वैरनुरूपरूपविभवैर्गाढोपगूढानि ते ।। 

अन्वय
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हरे: शान्तानन्तमहाविभूति(शान्त-अनन्त-महाविभूति) परमम् यद् ब्रह्मरूपम् (तथा) ततोऽपि (ततः अपि) तत्प्रियतरम् (तत् प्रियतरम्) यद् अत्यद्भुतम् (अति अद्भुतम्) मूर्तं ब्रह्मरूपं (तथा) यथासुखं विहरत: (हरे) यानि अन्यानि रूपाणि तानि सर्वाणि (परमर्षयो वेदा वा) स्वैरनुरूपरूपविभवै: गाढोपगूढानि (गाढ-उपगूढानि) आहु:।

शब्दार्थ
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शान्तानन्त – समस्त दोषों से दूर, अपरिच्छिन्न,
महाविभूति – महान् विभूतियों से युक्त,
परमम् ब्रह्म – सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म पदवाच्य,
हरे: – भगवान् का,
यत् रूपम् – जो दिव्यात्मस्वरूप हैं,
तत: अपि – उक्त स्वरूप से भी,
तत्प्रियतरम् (तत् प्रियतरम्) – आपका और प्रिय ,
अत्यद्भुतम् (अति अद्भुतम्) – अत्याश्चर्यमय,
मूर्तं ब्रह्म –साकार ब्रह्म कहलानेवाला,
यथासुखं विहरत: – आनन्द के साथ लीला- विहार करनेवाले,
तस्य –उन,
हरे: – भगवान् के,
अन्यानि – दूसरे जो नाना प्रकार के,
यानि – जो,
रूपाणि – विभावावतार के दिव्यमङ्गलविग्रह होते हैं,
तानि सर्वाणि रूपाणि – उन सभी दिव्य विग्रहों को,(हे माँ लक्ष्मी जी!)
ते स्वै: – आपके असाधारण, 
अनुरूपरूप – भगवान् के दिव्य रूपों के,
विभवै: – वैभववाले दिव्य रूपों से,
गाढ-उपगूढानि – नित्य युक्त,
आहु: – बताते हैं, कहे जाते हैं।

अर्थ
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यहाँ भगवान् के अनेक रूपों में माँ लक्ष्मी जी के साथ आपके सारे सम्बन्धों के सम्पुष्टि की यहाँ प्रस्तावना है।

"परमपद में श्रीहरि जो षडैश्वर्यादि दोषों से रहित हैं, उभय विभूति (लीला विभूति और त्रिपाद विभूति) से संयुक्त हैं , उनके शोभायमान रूप या उससे भी अधिक सुन्दर तथा अपनी इच्छानुसार कोई मङ्गल रूप या आपके आनन्द के प्रति भगवान् जो भी रूप धारण करें, उनकी लीला, मान उन सभी को आप आनन्द से स्वीकार करती हैं। अर्थात् अपनी इच्छा के अनुसार विहार करनेवाले श्रीहरि के जो परवासुदेव से विलक्षण व्यूह, विभव आदि रूप हैं, वे  सब के सब अपने असाधारण स्वरूप स्वभाव आदि से सदा विशिष्ट ही रहते हैं। उन्हें आप प्रसन्नता से स्वीकार करती हैं। ऐसा पराशर आदि महर्षियों ने कहा है।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् श्रीरङ्गनाथ से पेरिय पिराट्टि के सारे सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं।

अर्थात् लक्ष्मी जी किसी भी अवस्था में भगवान् से विछुड़ती नहीं। वे भगवान् के स्वरूप, विग्रह तथा अवतारों— सर्वत्र उनसे संयुक्त होकर ही रहती हैं। 

भावार्थ
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इस श्लोक में स्वामी यामुनाचार्य जी बताते हैं कि श्रीमहालक्ष्मी जी भगवान् श्रीमन्नारायण के साथ सर्वदेश, सर्वकाल तथा सर्वावस्था में  नित्ययुक्त संश्लिष्ट रहती हैं।

"अपने शरणागतों के दोषों को दूर करनेवाले श्रीहरि जो शान्त , अपक्षयादिविकाररहित अनन्त , महाविभूति , त्रिपाद्विभूति  , लीलाविभूति (एतदुभयविभूतिविशिष्ट) परम (सर्वोत्कृष्ट) , चेतनाचेतन से विलक्षण सकलवेदान्तप्रसिद्ध ब्रह्म ,श्रुतिस्मृतिपाञ्चरात्रादि प्रसिद्ध मूर्त्त(साकार ब्रह्म), अति बृहत्त्वाश्रित (महान् विभूतियों से युक्त)  ऐसे जो भी परवासुदेव के अंशभूत रामकृष्णादि रूप हैं वे सब भगवदभिमत विग्रहादि वैभवों से गाढोपगूढ (नित्ययुक्त)  हैं। इस तरह पुरुषकार कृत्य करने के लिए माँ महालक्ष्मी जी सर्वदा भगवान् श्रीमन्नारायण के साथ सदा ही रहती हैं।
ऐसी माँ की कृपा से हमें उन अनुगुण वैभव व दिव्य रूपोंवाले भगवान् श्रीमन्नारायण की शरणागति करनी चाहिए।"

इसी की पुष्टि व्यास जी विष्णुपुराण में इस प्रकार करते हैं–

'देवत्वे देवदेहेयं मानुषत्वे च मानुषी।
विष्णोर्देहानुरुपां वै करोत्येषाऽऽत्मनस्तनुम्॥'

(विष्णुपुराणान्तर्गतं श्रीमहालक्ष्मीस्तोत्रम् , 30)

अर्थात् हे मैत्रेय! जब-जब भगवान् देव-मनुष्यादि रूपों को धारण करते हैं तब-तब आप श्रीलक्ष्मी जी श्रीहरि के अनुग्रहरूपविग्रह को धारण करती हैं। तात्पर्य यह कि सर्वदेश-काल सर्वावस्था में श्रीजी भगवान् के साथ सम्पृक्तरूप से सदा नित्य रहनेवाली हैं। वे हम सभी की ममतामयी माँ हैं, ऐसी वत्सला के होने पर भी क्या हमें श्रीमन्नारायण भगवान् की शरणागति नहीं करनी चाहिए? इतनी दयालु माँ के रहते हुए कौन अभागा है जो भगवान् की शरणागति न करे। इसलिए हम सब को पुरुषकारभूता माँ की कृपा से भगवान् श्रीमन्नारायण की शरणागति अवश्य करनी चाहिए।

संक्षेप में इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि  भगवान् के दिव्यस्वरूप एवं परव्यूहादि सभी दिव्यमंगलविग्रह स्वरूपवाली, वात्सल्य स्वभाववाली महालक्ष्मी जी से युक्त होते हैं। जब भगवान् शरणागत चेतन के अपराध को देख कर दण्ड देने को उद्यत होते हैं तब माँ लक्ष्मी जी  भगवान् को सदुपायों से समझा कर उन्हें दण्ड देने से रोकती हैं। पद्मपुराण में व्यास जी कहते हैं–

प्राणसंशयमापन्नं दृष्ट्वा सीताय वायसम्।
त्राहि त्राहीति भर्तारमुवाच दयया विभुम्।।

श्रीसीता जी भगवान् के शरण में शरणागत हुए जयन्त की रक्षा करने को भगवान् से निवेदन करती हैं। और भगवान् जयन्त को प्राणदण्ड नहीं देते हैं।

अतः ऐसे महावैभवोपेत दिव्यदम्पति की पादच्छाया का आश्रय लेकर भगवान् की शरणागति करना शरणापन्न चेतन का कर्तव्य है।

इस प्रकार उपर्युक्त तीन श्लोकों में बताया गया कि लक्ष्मी जी किसी भी अवस्था में भगवान से विछुड़ती नहीं। वे भगवान् के स्वरूप, विग्रह तथा अवतारों सर्वत्र उनसे संयुक्त होकर ही रहती हैं। 

वेदान्तदेशिकभाष्यांश
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एवं श्लोकत्रयोक्ता: सहधर्मचारिण्या भगवत: स्वरूपविग्रहावतारष्वयोगव्यवच्छेदं वदन्नस्या अपि तद्वत् प्रधानप्राप्यत्वं सूचयति शान्तेति।

शान्तम् — अशनायाद्युर्मिभिरपक्षयादिविकारैश्च नित्यानन्वितमिति भाव:। अनन्तं त्रिविधपरिच्छेदरहितम्। महत्यौ शुद्धाशुद्धे विभूति यस्य तन्महाविभूति। परमं सर्वोत्कृष्टम्। यच्छब्द: सर्वोपनिषत्प्रसिद्धिं सूचयति। ब्रह्म निरतिशय बृहत्त्वबृंहणत्वयुक्तं रूपं स्वरूपमित्यर्थ:। अत एव व्यतिरेकविभक्तिश्चात्र घटते। हरे: आश्रितदोषहारिण: सर्वेश्वरस्य यद्वा सर्वसंहर्तु: यथोक्तं पुराण ( हर्यष्टके)।

ब्रह्माणमिन्द्रं रुद्रं च यमं वरुणमेव च।
निगृह्य हरते यस्मात् तस्माद्धारिरितीर्यते।।
इति।.....

यान्यन्यानि यथासुखं विहरतो —  यान्यन्यानीति। यच्छब्द इहावताररहस्यप्रकरणादिप्रसिद्धिपर:।

अन्यानि— पररूपात्तदंशतया सन्निवेशैर्वर्णादिभिश्च विलक्षणानि।

यथासुखम् — मनुष्यादिसजातीयावतारदशायामप्यस्य स्वाभाविकसुखादिनिवृत्तिर्दु:खं वा नास्तीति भाव:।

आहु: — श्रुतिस्मृतित्यादीनि तद्विदो वा स्वयम्भूवशिष्ठपराशरपाराशर्यात्रिकाश्यपशौनकमङ्कणशतमखधनदादय: तत्तत्संहिताप्रणेतार:।

स्वैरनुरूपरूपविभवै: — तवासाधारणै: अनुरूपरूपविभवै: अनुरूपाणां रूपाणां सम्पद्भि:। रूपाण्येव वा विभव: प्रभूतानुकूल्यैरनुरूपरूपैरिति यावत्। रूपशब्द इहापि पूर्ववत स्वरूपादित्रिकविषय:। भगवत्स्वरूपादीनामेतत्स्वरूपादीनि यथाक्रममनुरूपाणि। अनुरूपत्वं च सम्बन्ध सति प्रकृष्टं सादृश्यम्। इत्यादिभिरभिहितम्। 

गाढोपगूढानि —  अपराधभीतानां भगवत: सर्वदा शरण्यत्वार्थं प्राप्तिदशायां शर्करान्वितदुग्धन्यायेन निरतिशयभोग्यत्वार्थं च सर्वप्रकारेण श्रिया गाढोपगूढत्वोक्ति:। निरतिशयभोग्यान्तरोपश्लेषेणापि भोग्यत्वमविरुद्धम्। ते भगवदभिमतस्वरूपरूपादिसम्पद इति भाव:।

।। इति श्रीवरदवल्लभास्तोत्रम् ।।

वेदान्तदेशिकभाष्यांश का भावार्थ 
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श्रीवेदान्तदेशिक स्वामी जी बताते हैं कि श्रुति के अनुसार भगवान् श्रीमन्नारायण के तीन रूप हैं। 1- परब्रह्म, 2-परमपद तथा मन्दिरों में विराजमान अर्चाविग्रह जो दिव्य गुणों से युक्त रहने के कारण अति प्रिय तथा अद्भुत (अत्यन्त आश्चर्यजनक) है, 3- दिव्य रूप। पर, व्यूह , विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार। ये सभी रूप श्री जी को अति प्रिय ह। इसीलिये श्री जी का इन रूपों से दृढ़ सम्बन्ध है।

इस प्रकार उपर्युक्त तीनों श्लोकों में जिन माँ लक्ष्मी जी का वर्णन किया गया उनका भगवान् श्रीमन्नारायण के स्वरूप तथा अर्चावतारों में विशिष्ट सम्बन्ध बना रहता है। माँ लक्ष्मी और श्रीहरि इन षडूर्मियों (भूख, प्यास, शोक, मोह, वृद्धावस्था और मृत्यु) से कभी भी सम्बद्ध नहीं होते—

बुभुक्षा च पिपासा च प्राणस्य मनस: स्मृतौ।
शोकमोहौ शरीरस्य जरामृत्यु षडूर्मय:।।

अर्थात् वे भूख, प्यास, शोक, मोह, वृद्धावस्था और मृत्यु आदि षडूर्मियों से कभी प्रभावित नहीं होते।

हरे: — भगवान् श्रीहरि को दो कारणों से हरि कहा जाता है —

"निगृह्य हरते यस्मात् तस्माद्धरिरितीर्यते।"

1— वे प्रपन्नों को समस्त दोषों से मुक्त कर देते हैं।
2— प्रलयकाल में सभी का संहार कर अपने में लय कर लेते हैं।

इसीलिए वे हरि नाम से अभिहित किये जाते हैं।

मूर्तं ब्रह्म ततोऽपि तत्प्रियतरं रूपं यदत्यद्भुतम् —

मूर्तं — मूर्तं अर्थात्  महाभाग। एतावता परमपद में दिव्य शैया पर विराजमान वैकुण्ठाधिपति।

ब्रह्म — बृहत्त्वात् ब्रह्म अर्थात् दिव्य विग्रह वाले भगवान् श्रीमन्नारायण। वे अपने आश्रितों की बुद्धि का उपबृंहण(वृद्धि करना, पुष्टि करना) करते हैं, विकसित करते हैं।

तात्पर्य यह कि यहाँ ब्रह्म शब्द से भगवान् श्रीमन्नारायण के दिव्य विग्रह को अत्यधिक महान् और आश्रितों के ज्ञान को प्रबुद्ध करनेवाला बताया गया है।

तत्प्रियतरं रूपम्  — अर्थात् आनन्द ब्रह्म, रसो वै स: ,  इत्यादि रूपों से जिस ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन किया गया है, उससे भी अधिक दिव्य सुन्दर भगवान् श्रीमन्नारायण का दिव्य विग्रह है। 

यत् — यत् शब्द से पाञ्चरात्र आगमों एवं श्रुतियों में नित्यत्व का बोध होता है।

अत्यद्भुतम् — अर्थात् भगवान् के सभी अवयव दिव्य तथा अत्यन्त आश्चर्यमय हैं जिसे हम परवासुदेव का स्वरूप कहते हैं।

यान्यन्यानि यथासुखं विहरतो रूपाणि सर्वाणि तान्याहु: — 

अब स्वामी यामुनाचार्य जी यान्यन्यानि शब्द से व्यूह, विभव आदि रूपों के उत्तरार्ध का वर्णन करते हैं। 

यथासुखं विहरत: —  अर्थात् भगवान् अपनी इच्छा के अनुसार विभिन्न अवतार ग्रहण करते हैं। इस परिस्थिति में न तो स्वाभाविक सुख की निवृत्ति होती है और न ही उनको किसी भी प्रकार के दु:ख का ही आभास होता है। 

विहरत: — अर्थात् भगवान् का अवतार अपनी इच्छा मात्र से होता है और यह उनकी क्रीडा के लिए होता है। 

सर्वाणि तान्याहु: — भगवान् के सभी अवतार श्री जी से सम्बद्ध रहते हैं। इसी भाव को दर्शाने के लिए यहाँ 'सर्वाणि तानि' कहा गया है।

स्वैरनुरूपरूपविभवै: — भगवान् और माँ लक्ष्मी जी के स्वरूप का मणिकाञ्चन संयोगन्याय से रूप भेद नहीं है।  'मद्धर्मिणी नित्यम्' अर्थात् भगवान् कहते हैं कि लक्ष्मी सदैव मेरे हृदय में स्थित रहती हैं। नित्य मुझमें विद्यमान रहती हैं। वे 'नित्यैवैषा जगन्माता' अर्थात् माता लक्ष्मी जी सम्पूर्ण जगत की माता हैं। 'देवत्व देवदेहेयम्' अर्थात् श्रीभगवान् के देव देह धारण करने पर वे भी उसी प्रकार देव शरीर धारण कर लेती हैं। 

गाढोपगूढानि — अर्थात् लक्ष्मी जी श्रीभगवान् के स्वरूप से सदा सम्पृक्त रहती हैं। स्व अपराध से भयभीत जीवों के रक्षकत्व  लिए भगवान् अत्यन्त भोग्यत्व के लिए भगवान् लक्ष्मी जी से सदा संयुक्त रहते हैं। इसी भाव को यहाँ 'गाढोपगूढानि' पद से बताया गया है। 

'यथासर्वगतं विष्णु:' अर्थात् जीस प्रकार भगवान् श्रीमन्नारायण सर्वव्यापक हैं उसी प्रकार माँ लक्ष्मी जी भी सर्वव्यापक हैं।

इस प्रकार से यहाँ लक्ष्मी जी का भगवान् श्रीमन्नारायण से अपृथकत्व और उनके सर्वव्यापकत्व को बताया गया है।

।। इति।।

           —अडियन रमेशप्रपन्नाचार्य

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