|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *आशानीति* " ( १४४ )
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*श्लोक*---
" देहपादपसंस्थस्य ह्रदयालय-- गामिनः ।
तृष्णा चित्तखगस्येयं वागुरा परिकल्पिता " ।।
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*अर्थ*----
देहरूपी पेडपर , ह्रदयरूपी घोंसले में जानेवाले मनरूपी पक्षी को अटकाने के लिए , जैसे तृष्णारूपी जाल नियुक्त किया गया है ।
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*गूढ़ार्थ*------
कितना सुन्दर सुभाषितकार ने आशा का वर्णन किया है । हमारे देह में जो ह्रदय है उसके अंदर से जो तृष्णा जागृत होती है उसमें जो मन है वह और भी आशा रूपी तृष्णा से भर जाता है उसे ही ललचाने के लिए यह विधीने तृष्णा निर्माण की है । विधीने हमे तृष्णा रूपी जाल में फंसा दिया है और हम उसमें अनन्तकाल से गोते ही लगा रहे है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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