|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सामान्यनीतिः* " ( १८७ )
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*श्लोक*---
" किं वाससा तत्र विचारणीयं वासः प्रधानं खलु योग्यतायाः ।
पीताम्बरं वीक्ष्य ददौ स्वकन्यां चर्माम्बरं वीक्ष्य विषं समुद्रः " ।।
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*अर्थ*----
वस्त्र या वेशभूषा का क्या ? कुछ भी पहना तो भी चलता है । इसपर मनुष्यने ज्यादा नही सोचना चाहिए । किन्तु वेशभूषा ही पात्रता का लक्षण है । देवता और असुर इन्होंने जब समुद्रमन्थन किया तो उसमें से लक्ष्मी और हलाहल दोनों ही उत्पन्न हुए । इस तरह से समुद्र लक्ष्मी और हलाहल दोनों का पिता । किन्तु उसने विष्णु का चकाचक पीताम्बर और मोहक वस्त्रों को देखकर अपनी सुरूपं कन्या लक्ष्मी को दे दिया और शंकर का चर्मवस्त्र वाला विचित्र रूप देखकर उसे हलाहल विष प्राशन करने को दिया ।
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*गूढ़ार्थ*----
आखिर मनुष्य का भी बाहरी रूप रंगभूषा ही प्रभाव डालता है । देवों के मामले वेशभूषा महत्वपूर्ण है तो हम तो सामान्य मनुष्य ही ठहरे । हमे तो चकाचक रहना ही चाहिए । आकर्षक वेशभूषा के कारण ही विष्णु को लक्ष्मी मिली और गबाळे वेष के कारण शंकर को विष ! सोचनेलायक बात है न ? कि पुराने जमाने में भी दिखावा चलता था तो आज की बात क्या कही जाये ?
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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