|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *लक्ष्मी--स्वभावः* " ( १०० )
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*श्लोक*-----
" पद्मे मूढजने ददासि विभवं विद्वत्सु किं मत्सरो
नाहं मत्सरिणी न चापि चपला नैवास्ति मूर्खे रतिः।
मूर्खेभ्यो द्रविणं ददामि नितरां तत्कारणं श्रूयताम् ।
विद्वान् सर्वगुणेषु पूजिततनुर्मूर्खस्य नान्या गतिः " ।।
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*अर्थ*---
हे कमले ( लक्ष्मी देवी ) आप मूर्खों को ही धनवैभव प्रदान करती हो वह क्यों ? विद्वान लोंगो के लिए आपके मन इतना मत्सर- द्वेष क्यों है ? लक्ष्मी कहती है --" मेरे मन में विद्वान जनों के लिए राग अगर द्वेष नही और न ही मैं चञ्चला और चपला हूँ । और न ही मेरा कोई मूर्खों प्रति प्रेम है । मै मूर्खों के पास ही रहती हूँ और उन्हे ही संपत्ति देती हूँ इसका कारण सुनो -- विद्वान उनके गुणों के कारण सर्वत्र पूजनीय होते है किन्तु मूर्खों की मेरे अलावा कोई गती नही होती । अगर मैंने उनकी तरफ देखा नही तो वह बेचारे क्या करेंगे? उनको कौन पूछेगा ?
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*गूढ़ार्थ*---
कुछ भी विधि निषेध न मानते हुए जो लोग पैसा कमाते है वह आजकल भले ही स्मार्ट माने जाते होंगे किन्तु सुभाषितकार उन्हे मूर्ख की श्रेणी में रख रहा है । और लक्ष्मी भी उन्हे बेचारे की श्रेणी में ही रख रही है । विद्वान सर्वत्र वंदनीय और पूजनीय ही होते है । जिनके भरोसे वह अपना पेट पाल ही लेते है । भले लक्ष्मी उनके पास स्थिर नही रहती हो ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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