|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *नवरसवर्णनम्* " ( १६६ )
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" *शान्तरसः* "
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*श्लोक*----
" पुत्रमित्रकलत्रेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः ।
सरः पङ्कान्तरे मग्ना जीर्णा वनगजा दूव " ।। ( काव्याङ्लकारसूत्राणि ( वामन ) )
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*अर्थ*----
पुत्र , मित्र , पत्नी इन सबके मोह में मग्न होकर सब प्राणी दुःखी हो जाते है । तालाब के कीचड़ में फ़ंसे हुए वन्य हाथीजैसी सब प्राणियों की दशा होती है। कमल पत्र और पुष्पादी के मोह के कारण हाथी तालाब में जाता है और गहरे कीचड़ में फंस जाता है ।
उसी तरह मनुष्य भी पुत्र मित्रादी के मोह के कारण दुःखसागर में मग्न होकर आखिर विनाश को प्राप्त हो जाता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
यहाँ पर शान्तरस में वैराग्य भाव दिख रहा है । मनुष्य की मानसिकता पर सुभाषितकार ने अच्छी टिपणी लिखी है।
एक के पिछे एक हम रिश्ते जोडते जाते है उसे निभाते जाते है लेकीन हम में से किसी के मन में यह विचार नही आता की हम संसार के कीचड़ में गहरे धसे जा रहे है ।
---------------------------------------------------------------------------------------यहां पर नवरस प्रकरण समाप्त होता है। वैसे एकाध श्लोक बीच बीच में मै लिखुंगी ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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