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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *कूटश्लोकः* " ( २९३ )
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*श्लोक*----
" राक्षसेभ्यः सुतां ह्रत्वा जनकस्य पुरीं गतः ।
अत्र कर्तृपदं गुप्तं यो जानाति स पण्डितः ।। "
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*अर्थ*----
राक्षसों से पुत्री का हरण करके वह जनक की नगरी में चला गया । यहाँ पर कर्ता गुप्त है और जो जानेगा वह पण्डित कहालेयेगा।
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*गूढ़ार्थ*---
राक्षसेभ्यः इसका सन्धिविच्छेद करने के बाद = राक्षसानां इभ्यः= राक्षसों का राजा ऐसी होती है । ( इभ्यः= राजा ) मतलब रावण ऐसा उत्तर मिलता है और जनकस्य सुतां ऐसा अन्वय करने के बाद ,
" जनक की पुत्री को भगाकर राक्षसश्रेष्ठ ( रावण ) अपनी नगरी को ( लङ्का ) चला गया ।
और कूट श्लोक समझ में आता है ।
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डाॅ . वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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