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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( ११४ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(१०)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
(६)व्यायोग-- नायकः दिव्य प्रख्यात राजर्षि। अंक: १। युद्धदर्शन। रसः रौद्र और वीर। नायक संख्या: शारदातनय के मतानुसार ३ से १०।
(७) समवकार-- देवदैत्य कथा। अंक ३। प्रत्येक अंक में ४ नायक। कुल नायक संख्या १२। प्रतिनायक असुर। भरत के मतानुसार समवकार में त्रि- विद्रव, त्रि- कष्ट और त्रि- शृंगार चाहिए ।
(८)उत्सृष्टिकांक-- वस्तु प्रख्यात। अप्रख्यात दिव्य पुरुषों का अभाव। युद्ध का अभाव। वृत्ति भारती अंक १।
(९)वीथी--अंक १। पात्र: एक या दो। प्रधानरस: शृंगार। अन्य रस भी चाहिए ।
(१०)ईहामृग-- वस्तु प्रख्यात। पात्र: दिव्य उद्धत। स्त्रीनिमित्तक युद्ध। अंक ४।रस : शृंगार ।
अंको की संख्या के नुसार दस रूपकों के ६ भेद होते है जैसे:-
एक अंक-- भाण ,व्यायोग, वीथी और उत्सृष्टिकांक।
दो अंक-- प्रहसन।
तीन अंक-- समवकार।
चार अंक--डिम और ईहामृग।
पाँच से सात अंक-- नाटक।
आठ से दस अंक--प्रकरण।
नायक संख्या की दृष्टि से अनेक नायक वाले रूपक तीन होते है।
डिम--१६ नायक। समवकार-- ४ नायक । व्यायोग--३ से १० तक।
क्रमशः आगे......
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( ११७ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(१३)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग*"
*रसो के अनुसार रूपको का वर्गीकरण*
(१) शृंगार प्रधान--नाटक,प्रकरण (वीररस गौण) वीथी और ईहामृग। वीररस प्रधान-- समवकार,व्यायोग और डिम (रौद्रसहित)। हास्यरसप्रधान- प्रहसन। करूणप्रधान- उत्सृष्टिकांक।
नाटक में जब शृंगार रस प्रधान होता है तब वीर गौण और जब वीर रस प्रधान होता है तब शृंगार गौण होता है।
ईसा पूर्व काल में प्राचीन भारत में छायानाटक नामक नाट्यप्रकार प्रचलित था। महाभारत और थेरीगाथा में छायानाटक के उल्लेख मिलते है। महाभारत में रूपोपजीवनम् शब्द आता है, जिसके स्पष्टीकरण में टीकाकार नीलकण्ठ ने "छायानाटक" का वर्णन दिया है। तद्नुसार दीपक और पर्दों के बीच स्थापित काष्ठ--मूर्तियों के अवयवों को सूत्र से चलित कर पर्दों पर छाया के रूप में पौराणिक घटनाओं के दृश्य दिखाए जाते थे।
सुभट कवि कृत दूतांगद नामक छायानाटक का प्रयोग सन् १२४३ में चालुक्य राजा त्रिभुवनपाल के निमंत्रणानुसार कुमारपालदेव के सन्मानार्थ अनहिलवाड पट्टण (गुजरात) में हुआ था ऐसा उल्लेख मिलता है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( ११८ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(१४)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग*"
*वस्तुशोधन*
बहुसंख्य संस्कृत रूपकों की वस्तु या कथा प्रायः रामायण, महाभारत और गुणाढ्य की बृहत्कथा से ली गई है। दशरूपककार ने मूल को रूपकोचित करने के लिए "वस्तुशोधन" के कुछ नियम बताए है। तदनुसार मूल कथा में नायक का व्यक्तित्व और रसयोजना इनकी और ध्यान देते हुए मूल कथा में जो अनुचित या रस के विरुद्ध भाग होता होगा उसका त्याग करना चाहिए अथवा किसी अन्य रीति से उसकी योजना करनी चाहिए। जो मूल कथांश नीरस और अनुचित होगा उसे अर्थोपक्षेपकों के द्वारा सूचित करना चाहिए। परंतु जो कथांश मधुर, उदात्त और रसभावयुक्त हो उसे रंगमंच पर अवश्य दिखाया जाना चाहिए।
"तत्रानुचितं किंचिद् नायकस्य रसस्य वा। विरूद्धं तत् परित्याज्यम् अन्यथा वा प्रकल्पयेत्।।(द.रू ३-२४)
नीरसोऽनुतस्तत्र संसूच्यो वस्तुविस्तरः। दृश्यस्तु मधरोदात्त-- रसभाव-- निरंतरः(द. रू. १-५७)
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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" *संस्कृत-गङ्गा* "( ११९ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(१५)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
*अर्थोपक्षेपक*
नीरस और नाट्यप्रयोग की दृष्टि से अनुचित कथाभाग को जिन पाँच प्रकारो से सूचित किया जाता है उन्हे "अर्थोपक्षेपक" कहते है। उसके पाँच प्रकारो के नाम है--(१) विष्कम्भ या विष्कम्भक(२) चूलिका(३) अंकास्य या अंकमुख (४) अंकावतार (५)प्रवेशक। प्रायः सभी नाटकों में इन में से कुछ प्रकार दिखाई देते है।
अनौचित्य टालने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण सूचना दी गई है कि नायक अगर दिव्य प्रकृति राजा हो तो उसका प्रेमप्रसंग साधारण स्त्री (अर्थात् गणिका) के साथ चित्रित नही करना चाहिए। उसी प्रकार शृंगार रस के वर्णन में नायिका "अन्योढा" (याने दूसरे से विवाहित स्त्री) नही होनी चाहिए। सभी रूपकों की (विशेषतः नाटक और प्रकरण की) कथा के दो विभाग करने चाहिए जिस में नीरस अंश सूच्य होगा और बाकी सरस अंश दृश्य पंचसंधियों में विभाजित होना चाहिए।
क्रमशः आगे.....
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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" *संस्कृत-गङ्गा* ( १२० )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(१६)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
*अर्थोपक्षेपक*
नाट्यशास्त्र के अनुसार रूपक की कथावस्तु का विभाजन पाँच संधियों में करना इष्ट माना है। इन पांच संधियो के क्रमशः नाम है--(१) मुख (२) प्रतिमुख (३) गर्भ (४)अवमर्श (५) निर्वहण। इन पांच सन्धियों की निर्मिति, पाँच अर्थप्रकृतियों और पाँच कार्यवस्थाओं के यथाक्रम समन्वय से होती है।
पाँच अर्थप्रकृतियां-- (१) बीज (२) बिन्दु(३) पताका(४) प्रकरी(५) कार्य।
पाँच कार्यावस्थाएं--(१) आरंभ (२) यत्न (३) प्राप्त्याशा(४)नियताप्ति(५) फलागम।
पाँच सन्धियों के कुल मिलाकर ६४ अंग होते है जिनका रचना में छः प्रकारों से प्रयोजन होता है।
इष्टास्यर्थस्य रचना, गौप्यगुप्तिः प्रकाशनम्। रागः प्रयोगास्याश्चर्य वृत्तान्तस्यानुपक्षयः।।(द.रु.१-५५)
इस कारिका में वे छः प्रयोजन बताये गये है। शाकुन्तल, उत्तररामचरित, वेणीसंहार इत्यादि श्रेष्ठ नाटकों को टीकाकारों ने उन नाटकों के कथाविकास की चर्चा में इन ६४ अंगों का यथास्थान निर्देश किया है। नाटक, प्रकरण के अतिरिक्त गौण रूपकप्रकारों में पाँचो सन्धिस्थान नही होते।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( १२१ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(१७)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग*"
*अंक*
रूपकों का सर्वश्रेष्ठ घटकावयव होता है अंक। इसमें नायक का चरित्र प्रत्यक्ष रूप से दिखाया जाता है और बिन्दु नामक अर्थप्रकृति व्यापक स्वरूप में पायी जाती है। वह नाना प्रकार के नाटकीय प्रयोजन के संपादन का तथा रस का आश्रय होता है।
(" प्रत्यक्षनेतृचरितो बिन्दुव्याप्तिपुरस्कृतः। अंको नानाप्रकार्थ-संविधानरसाश्रयः।।" द.रू.३.३०) अंक का मुख्य उद्देश्य होता है दृश्य वस्तु का चित्रण। अंक में वस्तु की योजना ऐसी ही हो कि जिसमें केवल एक दिन की ही घटना हो और वह भी "एकार्थ" याने एक ही प्रयोजन से संबद्ध हो। उसमें नायक तीन या चार पात्रों के साथ रहे और नायक सहित सारे पात्रों के निर्गमन के साथ अंक की समाप्ति हो।
(एकाहचरितैकार्थम् इत्थमासन्ननायकम्। पात्रैस्त्रिचतरैः कुर्यात् तेषामन्तेऽस्य निर्गमः।।(द. रू.३•३६)
वस्तुशोधन की दृष्टि से किसी भी अंक में दीर्घ प्रवास, वध, युद्ध, राज्यक्रान्ति,नगरी को घेरा डालना,भोजन,स्नान,संभोग, उबटन लगाना,वस्त्रधारण करना इत्यादि प्रकार के दृश्य किसी भी अंक में मंच पर नही बताना चाहिये। विष्कम्भक, चूलिका इत्यादि अर्थोपक्षेपकों में उनकी सूचना की जा सकती है। रूपक के विविध प्रकारों में अंको की संख्या शास्त्रकारों ने निर्धारित की है जिसका निर्देश प्रस्तुत अध्याय में रूपक प्रकारों के विभाजन के समय प्रारंभ में किया गया है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( १२३ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(१९)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
*नाट्यपात्र*
नाट्यशास्त्र में विविध पात्रों के प्रकार तथा उनके गुणावगुण का विवेचन किया गया है। उन में मुख्य पात्र को नायक और स्त्री पात्र को नायिका कहते है। दशरूपक में नायक की विनम्रता, मधुरता,त्याग, प्रिय भाषण इत्यादि २२ गुणों का उदाहरणों सहित परिचय दिया है। ये सारे गुण स्पृहणीय और प्रशंसनीय है कि उन से सम्पन्न पुरुष अथवा स्त्री मानव का आदर्श माने जा सकते है।
कथाचित्रण तथा रसोद्रेक की दृष्टि से नायक के चार प्रकार माने जाते है। शास्त्रोक्त सामान्य २२ गुणों के अतिरिक्त जब नायक सात्विक ( अर्थात् क्रोध, शोक आदि विकारों से अभिभूत न होने वाला) अत्यंत गंभीर ,क्षमाशील, आत्मश्लाघा न करने वाला अचंचल मन वाला, अहंकार व स्वाभिमान को व्यक्त न करनेवाला और दृढव्रत अर्थात् ध्येयनिष्ठ हो तब उसे "धीरोदात्त" नायक कहते है। श्रीरामचन्द्र "धीरोदात्त " नायक के परमश्रेष्ठ आदर्श है। रामायण की कथाओं पर आधारित सभी उत्कृष्ट नाटकों में संस्कृत नाट्यशास्त्र का यह परम आदर्श व्यक्तित्व प्रतिभासंपन्न नाटककारों चित्रित किया है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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" *संस्कृत-गङ्गा* ( १२४ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(२०)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
*नाट्यपात्र*
इसके विपरित जब नायक दर्प (घमण्ड) और ईर्ष्या(मत्सर) से भरा हुआ, माया और कपट से युक्त, अहंकारी, चञ्चल, क्रोधी और आत्मश्लाघी होता है तब उसे "धीरोध्दात्त" कहते है। रावण धीरोध्दात्त नायक का उदाहरण है।
जो सर्वथा निश्चिन्त, गीत--नृत्यादि ललित कलाओं में आसक्त , कोमल स्वभावी और सुखासीन रहता है उसे "धीरललित" नायक कहते है। ऐसे नायक का सारा लौकिक व्यवहार, उसके मन्त्री आदि सहायक करते है। वत्सराज उदयन इसका उदाहरण है।
नायक के सामान्य गुणों से युक्त ब्राह्मण, वैश्य या मन्त्रिपुत्र को "धीरशान्त" नायक कहा है। मालतीमाधव प्रकरण का माधव और मृच्छकटिक प्रकरण का चारुदत्त धीरशान्त कोटी के नायक है।
वीर--शृंगार प्रधान नाटकों में धीरोदात्त; रौद्र-वीर-भयानक की प्रधानता में धीरोध्दात्त; और शृंगार- हास्य की प्रधानता होने पर धीरललित नायक का रूपकों में प्राधान्य होता है। शृंगार प्रधान प्रकरणों में धीरशान्त नायक का महत्त्व होता है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
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|| *ॐ*||
" *संस्कृत-गङ्गा* ( १२५ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(२१)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
*मध्यपात्र*
रूपकों में भूत और भावी वृत्तान्त का कथन अथवा शेष घटनाओं की सूचना देने के लिए अंको के अतिरिक्त विष्कम्भक और प्रवेशक अंको के बीच बीच में प्रयुक्त होते है। उन में कथा से संबंधित पात्रों के अतिरिक्त स्त्री--पुरुष पात्र होते है,जिन्हे "मध्यपात्र" कहते है। विष्कम्भक के मध्यपात्र सामान्य श्रेणी के और प्रवेशक के नीच श्रेणी के होते है। नायक के परिच्छद ( अर्थात् परिवार) में पीठमर्द ( अथवा "पताकानायक") विट,विदूषक और प्रतिनायक रहते है। प्रतिनायक मुख्य नायक का द्रोह करता है। उसी को खलनायक कहते है। यह खलनायक धीरोद्धत्त पापी और व्यसनी होता है। इनके अतिरिक्त नायक के राजा होने पर उसके मन्त्री ,न्यायाधीश, सेनापति ,पुरोहित ,प्रतिहारी, वैतालिक (स्तुतिपाठक) इत्यादि पुरुष पात्र आवश्यकता के अनुसार रूपकों में रहते है। प्रणयप्रधान नाटकों में नायक के "नर्मसचिव" अथवा मित्र का दायित्व विदूषक निभाता है।
" *वामनो दन्तुरः कुब्जो द्विजन्मा विकृताननः। खलतिः पिंगलाक्षश्च संविधेयो विदूषकः*।।(नाट्यशास्त्र. २४•१०६)
विदूषक के समान नायक के प्रियाराधन में सहाय करनेवाला "विटः" कर्मकुशल, वादपटु, मधुरभाषी और व्यवस्थित वेशधारी होता है।
क्रमशः आगे........
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( १२६ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(२२)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
*मध्यपात्र*
इनके अतिरिक्त विदूषक के समान विनोदकारी परंतु दुष्ट प्रवृत्ति वाला"शकार" मृच्छकटिक में आता है। राजा के अन्तःपुर में रहनेवाले वर्षवर (हिजडा) कंचुकी, वामन (बौना) किरात,कुब्ज इस ढंग के नीच पात्र नाटक में आवश्यक माने है।
नाटकों वर्णित रामादि पात्र धीरोदात्त, धीरललित आदि अवस्था के द्योतक होते है। कवि अपने पात्रों का वर्णन ठीक उसी तरह नही करते जैसे पुराणेतिहास में होता है। कवि तो लौकिक आधार पर ही उनका चित्रण करते है। अपनी कल्पना के अनुसार अपने पात्रों में धीरोदात्तादि अवस्थाओं को चित्रित करते है। ये पात्र अपनी अभिनयात्मक अवस्थानुकृति द्वारा सामाजिकों में रति,हास, शोक इत्यादि स्थायी भावों को विभावित करते है। याने सामाजिकों के रत्यादि स्थायी भाव की प्रतीति में कारणीभूत होते है। इसीलिए रसशास्त्र की परिभाषा में उन्हे "आलंबन विभाव" कहते है। पात्रों के कारण विभावित हुए रत्यादि स्थायी भाव ही रसिक सामाजिकों द्वारा आस्वादित होते है।
जिस प्रकार मिट्टी से बने हाथी--घोडे आदि खिलौनों से खेलते हुए बच्चे उन्हे सच्चे प्राणी समझकर उनसे आनंद प्राप्त करते है उसी तरह काव्य के सह्रदय श्रोता या नाटक के प्रेक्षकगण भी राम-सीता आदि में उत्साह ,रति आदि भाव देखकर स्वयं उसका अनुभव करते है।
क्रमशः आगे........
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