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" *संस्कृत-गङ्गा* " ( ४६ )
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" *महाभारत की विचारधारा* "
शांतिपर्व एवं अनुशासनपर्व महाभारत के सैद्धान्तिक निधान माने जाते है। उसी प्रकार भीष्मपर्व के अन्तर्गत भगवद्गीता एक उपनिषद या तत्वज्ञान की प्रस्थानत्रयी में से एक पृथक् प्रस्थान माना जाता है।भारत एवं समस्त विश्व के तत्त्वचिंतकों को श्रीमद्भवद्गीताने अभी तक प्रबोधित किया है और आगे भी वह करते रहेगी। भक्तियोग,कर्मयोग,ज्ञानयोग, एवं राजयोग इन चतुर्विध योगशास्त्रों के अनुसार जीवन का मार्मिक तत्त्वदर्शन भगवद्गीता में हुआ है। सभी संप्रदायों के महनीय आचार्यों ने अपने अपने सिद्धांत की परिपुष्टि करने की दृष्टि से गीता पर टीकाएं लिखी। शांतिपर्व और अनुशासन पर्व में भीष्मयुधिष्ठिर संवाद में धर्म,नीति,अध्यात्म,व्यवहार इत्यादि विविध विषयों के विवाद्य प्रश्नों का विवेचन आने के कारण महाभारत यह भाग प्राचीन भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोश माना जाता है।इस समस्त ज्ञान के प्रवक्ता भीष्माचार्य जिनके बारे में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि------
"स हि भूतं भविष्यच्च भवच्च भारतर्षभ।वेत्ति धर्मविदां तमस्मि शरणं गतः।"
वर्तमान,भूत और भविष्य के ज्ञानी होने के कारण भीष्म के प्रतिपादन में अनेक प्राचीन कथाओं का उल्लेख आता है। अतः इस संवाद को कुछ विद्वान " *इतिहास संवाद* " कहते है। शांतिपर्व में वर्णाश्रम धर्म का धर्मशास्त्रानुसार प्रतिपादन किया गया है।
परंतु संन्यासश्रम के विषय में शक्रतापस संवाद के अन्तर्गत विशेष चेतावनी दी है कि बाल्यावस्था में या अज्ञानी दशा में संन्यास नही देना चाहिए। मोक्ष केवल संन्यास से ही मिलने की संभावना होती तो,
"पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्रुयः।"
अर्थात् पर्वत और वृक्ष संन्यासी जैसे निस्संग होने के कारण तत्काल मोक्षप्राप्ति के अधिकारी होंगे। इस प्रकार समाज विघातक अनुचित संन्यास का निषेध शांतिपर्व में किया गया है।सभी वर्णों के लिए साधारण धर्म शांतिपर्व के अन्तर्गत पाराशर जनक संवाद में बताया गया है। पाराशर ऋषि जनक को कहते है---
"आनृशंस्यमहिंसाचारप्रसादः संविभागिता। श्राद्धकर्मतिथेयं च सत्यमक्रोध एव।।
स्वेषु दारेषु सन्तोषः शौचं नित्यानसूयता। आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृपः।।"
महाभारत में चारों वर्णों के कर्म धर्मशास्त्र के अनुसार ही बताये है। तथापि शास्त्र विहित कर्म से उपजीविका होना असम्भव होने पर त्रैवर्णिकों के लिए अन्य वर्णों के कर्म करते हुए उपजीविका निभाने के पक्ष में अनुकुल मतप्रदर्शन किया है--
"क्षत्रधर्मा वैश्यधर्मा नावृत्तिः पतते द्विजः।
शूद्रधर्मा यदा तु स्यात् तदा पतति वै द्विजः।।"
शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्म या राजनीति विषयक चर्चा कुल ७६ अध्यायों में हुई है। प्राचीन वाड़्मय में राजनीति का अन्तर्भाव " *अर्थशास्त्र* " में होता था। इसी कारण शान्तिपर्व में इस चर्चा के प्रास्ताविक श्लोक में "अर्थशास्त्र "शब्द का प्रयोग हुआ है।
क्रमशः आगे.........
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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