" *ॐ* "
" *संस्कृत-गङ्गा* " ( १७ )
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" *ईशावास्योपनिषद्* "
यह उपनिषद् शुक्लयजुर्वेद का ४० वा अध्याय है।मन्त्र भाग का अंश होने के कारण इसका अधिक महत्व है।इस उपनिषद् में ईश्वर की व्यापकता तथा कर्मफल का विवेचन हुआ है।इसका प्रारंभ ' ईशावास्यमिदं सर्वम्' से होने के कारण ही इसका नामकरण ईशावास्योपनिषद् कर दिया गया।१८ मन्त्रों का यह लघुकाय उपनिषद् गागर में सागर की तरह स्वंय में ज्ञान का समावेश कर जीवन एवं जगत् की गुत्थियों को सुलझाने में सर्वथा समर्थ है।इसका मुख्य उद्देश्य ब्रह्म तथा आत्मा में अभेद स्थापित करना है।वेदान्त दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों का यह उपनिषद् उपजीव्य ग्रन्थ है।देव,पितर तथा मनुष्य की विनाशशील भोग्य सामग्री= असम्भूति तथा जगत् की उत्पत्ति ,स्थिति और संहार करने वाले- सम्भूति का वर्णन करते हुए इस उपनिषद् में कहा गया है कि असम्भूति का सेवन करनेवाले घोर अन्धकार में प्रवेश करते है किन्तु तत्ववेत्ता दोनों को जानते हुए सम्भूति से अमरत्व की प्राप्ती करते है---
"सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयसह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते।।"(ईशा.-१४)
अस्तु ,ईशावास्योपनिषद् का यह स्पष्ट सन्देश है कि मनुष्य अपने लौकिक जीवन को सुखमय बनाते हुए भी उस परम रहस्यमय ब्रह्म की तदाकारता प्राप्त कर लेता है।
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" *केनोपनिषद्* "
यह उपनिषद् सामवेद के तवल्कार ब्राह्मण का अंश है।तवल्कार को ही जैमिनीय, उपनिषद् तथा ब्रह्मोपनिषद् भी कहते है।उपनिषद् के प्रारम्भ में शिष्य द्वारा चार प्रश्न किये गये---केनोषितं पतति प्रेषितं मानः ?,केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः?,केनेषितां वांचमिमां वदन्ति ?,चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ?।इन प्रश्नों के आदि शब्द "केन " से इस उपनिषद् का नामकरण किया गया ।गुरु के द्वारा नियन्ता ब्रह्म की ओर सड़्केत कर कहा गया कि ब्रह्मज्ञान ही मनुष्य को अमरता प्रदान करता है। केनोपनिषद् में ब्रह्म तत्व को समझाने के लिए इसके तृतीय खण्ड में यज्ञ, अग्नि, वायु तथा इन्द्र से सम्बद्ध एक सुंदर दृष्टान्त उपलब्ध होता है।देवताओं के अहड़्कार मिटाने के लिए ब्रह्म यक्ष के रुप में प्रकट होते है।दिव्यतेज से सम्पन्न उस यज्ञ के निकट अग्नि और वायु जाते है। इन्द्र के उपस्थित होने पर यक्ष अन्तर्भूत हो जाते है ।शक्तिरूप में उत्पन्न ब्रह्म से इन्द्र नम्रतापूर्वक प्रश्न करते है---देवि यह यक्ष कौन है ? उमा उत्तर देती है --यह ब्रह्म है।इस दृष्टान्त से इस उपनिषद् में ब्रह्मविद्या के उपदेश द्वारा परमधाम की प्राप्ती का 'स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति ' का प्रतिपादन किया जाता है।
इस प्रकार केनोपनिषद् में यह प्रतिष्ठापित किया गया है कि ब्रह्मसत्ता द्वारा ही संसार में सचेतनता तथा देवताओं का महत्व है।सर्वव्यापी परब्रह्म को प्राप्त कर मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है और परमपद का अधिकारी बन जाता है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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