|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *कूटश्लोक* " ( १६७ )
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*श्लोक*----
" गवादीनां पयोऽन्येद्युः सद्यो वा जाते दधि ।
क्षीरोदधेस्तु नाद्यापि महतां विकृतिः कुतः " ।।
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*अर्थ*----
कवी कह रहा है कि -- गाय जैसे प्राणियों के पय का - दूध का दूसरे दिन दही में रूपांतर हो जाता है । किन्तु क्षीरसागर के पय का स्थित्य॔तर अभी तक नही हुआ है । उसमें विकृती नही आयी है।
इस पर से यह सिद्ध होता है की सज्जन लोगों में कभी भी विकृती नही आती है ।
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*गूढ़ार्थ*----
यहाँ पर ' पय ' शब्द पर श्लेष किया गया है ।
पय = दूध । पय = जल ।
गाय के पय = दूध का दही बन जाता है यह हमारा नित्य अनुभव है । किन्तु क्षीरसागर की बात ही निराली है । क्षीर मतलब दूध और क्षीरसागर मतलब दूध का समुद्र , दूधसागर ! जैसे गाय के दूध का दही बनता है वैसा क्षीरसागर का भी बनना चाहिए किन्तु ऐसा होते हुए दिखता नही है ।
यहाँ पर ' क्षीर ' शब्द पर भी श्लेष ही है । किसी संवेदनक्षमवृत्ती के कवी ने क्षीरसागर की कल्पना करके यह महान दृष्टान्त प्रस्तुत किया है ।
ऐसे कवियों को ह्रदय से प्रणाम ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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