|| चातुर्मासस्य ज्ञानयज्ञ ||
समिधा [५]
|| चतुर्थोऽध्यायः ||
'' आब्रह्मस्तंबपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे |
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने ||''
अर्थ—ब्रह्मदेव से लेकर तृण तक , उत्पन्न हुए चार प्रकार के जीवन समूह में, इच्छा और अनिच्छा रहती ही है , उनको दूर रखने का सामर्थ्य अकेले ज्ञानी व्यक्ति में ही है |
विशेषार्थ—चतुर्विध – जीव समूह के चार प्रकार –
[१] उद्भिज्ज – जमीन से निकले हुए |
[२] स्वेदज – पसीने से निर्माण हुए |
[३] अंडज – अंडे से निकले हुए |
[४] जरायुज – गर्भ से निकले हुए |
जैसे ' जातस्य हि ध्रुव मृत्यु '| वैसे ही जन्मे हुए हर एक में इच्छा भी रहती ही है | सिर्फ ज्ञानी उसे दूर रखने का सामर्थ्य रखता है |
कल श्लोक [६]
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|| तस्मै श्री अष्टावक्राय नमः ||
डॉ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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