|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *कविस्तुति* " ( १६९ )
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*श्लोक*----
" रात्रिर्नीरजनिकरा नीरजनिकरापरिष्कृता सरसी ।
अपि भजते न वरसभा नवरसभावज्ञवर्जिता शोभाम् " ।।
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*अर्थ*---
चन्द्र विना रात्र -- कमलसमुदाय विना सरोवर , और नवरस भाव जाननेवालों के विना पंडितसभा -- राजसभा सुशोभित नही होती ।
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*गूढ़ार्थ*---
सुभाषितकार ने बडी ही सुन्दरता प्रस्तुत श्लोक में कवी माहात्म्य कहा है । निर्= नही , रजनीकर = चन्द्र , नीरज = कमल , निकर = समुदाय , वरसभा = पंडितों की सभा , नव -रस - भावज्ञ = नऊ रसों के भाव जाननेवाले ।
इस तरह से कवी के विना पंडितसभा -- राजसभा हो ही नही सकती ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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