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" सुभाषितरसास्वाद् "
" वक्रोक्ति " [ ३०९ ]
श्लोकः—सरसा सालंकारा सुपदन्यासा सुवर्णमयमूर्तिः|
आर्या तथैव भार्या न लभ्यते पुण्यहीनेन ||
अर्थः—सरस, सालङ्कार, सुपदन्यास, सुवर्णमयमूर्ति ऐसी आर्या और भार्यां पुण्यहीन लोगों को मिलती नहीं|
गूढार्थः—आर्या [ काव्य ] सरस—रसयुक्त| सालंकार—शब्द के अलंकार पहने हुई|
सुपद्न्यास—पदलालित्ययुक्त| सुवर्णमयमुर्ति—मीठी रचना|
भार्या [ पत्नी ] रसिक, सुवर्णअलंकारयुक्त, जिसका पदन्यास मोहक है, सुवर्णकान्ति वाली|
यहाँ पर कवी कह रहा है की अच्छी पत्नी और अच्छा काव्य पुण्यहीनों के नसीब में नही होता|
मतलब पुण्य से ही काव्यरचना स्फूरती है| और पुण्य से ही अच्छी पत्नी मिलती है|
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डॉ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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