|| ॐ ||
|| सुभाषितरसास्वाद् ||
" कूटानि " [ ३०७ ]
श्लोक—
शङ्करम पतितं दृष्ट्वा पार्वती हर्षनिर्भरा |
रुरुदुः पन्नगाः सर्वे हा हा शङ्कर शङ्कर ||
अर्थ—शंकर को गिरा हुआ देखकर पार्वती अति आनंदित हो गयी | और सब पर्वत [ पन्नगा ] हा हा शंकर हा हा शंकर ऐसा कहकर रोने लगे |
गुढार्थ—शंकर को गिरा हुआ देखकर, पार्वती कैसे आनन्दित होगी ?
अब इस श्लोक में " शंकर और पार्वती " का दूसरा अर्थ लेना पड़ेगा | वह ऐसा –
चंदन के उत्तम वृक्ष [ शंकर ] को गिरा हुआ देखकर पर्वत में रहेनेवाली [ पार्वती ] भिल्लीण आनंदित हो गयी और उस चंदन को लिपटकर रहेनेवाले; उसके मादक सुगंध के कारण रहेनेवाले सांप [ पन्नगा ] शोक करने लगे " हा हा यह चंदन का उत्तम वृक्ष [ शंकर ] क्यों गिरा ?
अब शंकर और पार्वती पर का श्लेषार्थ स्पष्ट हो गया |
ॐॐॐॐॐ
डॉ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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