|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सामान्यनीति* " ( २३६ )
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*श्लोक*----
" यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः ।
तथा वेदं विना विप्रस्त्र्रयस्ते नामधारकाः " ।।
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*अर्थ*----
जैसे लकडी से बनाया हुआ हाथी या फिर चमडे से बनाया हुआ घोड़ा वैसे ही वेदाध्यन न करनेवाला ब्राह्मण ; तीनों भी केवल नामधारी ही कहलायेंगे ।
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*गूढ़ार्थ*-----
कितना कड़वा सच हमे सुभाषितकार बताया है न ?
लकडी का हाथी खिलौना ही होता है या चर्म का घोड़ा भी केवल देखने के लिये ही होता है ऐसी ही स्थिति वेदाध्ययन किये बिना पूजा -पाठ वाले ब्राह्मण की होती है । वह मन्त्र पढकर पूजा तो कर लेता है पर उसके उच्चारण से ही पता चल जाता है कि उसने संथा नही पक्की की । पढ़ना और अभ्यास का फ़रक तुरन्त समझ जाता है ।
यहाँ किसके ह्रदय दुखाने का इरादा नही है पर यह बहुत ही कड़वा सच है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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