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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *परमार्थनीति* " ( २३१ )
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*श्लोक*-----
" अग्निर्देवो द्विजातीनां , मुनीनां ह्रदि दैवतम् ।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां , सर्वत्र समदर्शिनाम् " ।।
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*अर्थ*----
जिनका उपनयन संस्कार हुआ है उनका आराध्य दैवत अग्नी ही रहता है । तपस्वीयों का दैवत उनके ह्रदय में ही स्थित होता है , सामान्य बुद्धि के लोगों की मूर्ति ही देवता होती है । और भूतमात्र में समानभाव माननेवाले का सब चराचर में , अणुरेणु में , सब सृष्टि को व्याप्त देवता होती है । उनकी ईश्वरकल्पना ही विश्वव्याप्त होती है ।
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*गूढ़ार्थ*-----
कितना सुन्दर अध्यात्म में पोहचे हुए व्यक्ति का वर्णन सुभाषितकार ने किया है न ? छोटे से उम्र में जब उपनयनसंस्कार होता है तब से लेकर गृहस्थजीवन में अग्नी और मूर्तिपूजा का ही महत्व होता है क्यों अग्नीपूजा के साथ ही पञ्चयज्ञ और मूर्तिपूजा गृहस्थाश्रम में आवश्यक होती है । और सामान्य लोग तो मूर्तिपूजा के द्वारा सगुण उपासना ही करते है । जो तपस्वी होते है उन्हे मूर्तिपूजा की आवश्यकता ही नही होती उनका परमेश्वर तो ह्रदय में ही स्थित होता है जो कहीं पर भी अपनी मानसपूजा कर लेते है । और जो जीवन्मुक्त हो जाते है उन्हे किसी साधन की आवश्यकता ही नही होती है क्यों कि वह तो चराचर में ही भगवान को देखते है और उनकी ईश्वर की संकल्पना ही विश्वव्याप्त होती है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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