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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सामान्यनीतिः* " ( १८६ )
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*श्लोक*----
" को लाभो गुणिसंगमः किमसुखं प्राज्ञैतरैः संगतिः
का हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्त्वे रतिः।
कः शूरो विजेतेन्द्रियः प्रियतमा यानुव्रता किं धनं
विद्या किं सुखमप्रवासगमनं राज्यं किमाज्ञाफलम् ।। ( नीतिशतकम् )
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*अर्थ*----
सच्चा लाभ कौनसा ? गुणीजनों की सङ्गति। सच्चा दुःख कौनसा ? मूर्खों का सहवास । बडी हानी कौनसी ? समय निकल जाना ।
या आयी हुई संधी का लाभ उठा न सकना । सच्चा नैपुण्य कौनसा ? धर्मविषयी प्रिती । सच्चा शूर कौन ? जिसने इन्द्रियों पर विजय पा ली है वह । सच्ची पत्नी किसे कहना चाहिये ? जो हमेशा पति का अनुगमन करती है वह । सच्चा धन कौनसा ? विद्या ।
सच्चा सुख कौनसा ? प्रवास को ना जाना । सच्चा राज्य कौनसा ? जहाँ पर राजाज्ञा का पालन होता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
यहाँ पर बाकी सब तो सुभाषितकार ने सही बताये है पर सच्चा सुख कौनसा ? प्रवास को न जाना । यह जरा विपरित लगता है न?
तो इसका उत्तर यह है कि -- चारो आश्रमों में से गृहस्थाश्रम में प्रवास सबसे कम करना चाहिये ऐसा सङ्केत है । ब्रह्मचारी और संन्यासाश्रम में सबसे ज्यादा प्रवास करने के लिये कहा गया है और वानप्रस्थाश्रम में तपस्या का महत्व है । गृहस्थाश्रम में पञ्चमहायज्ञों का पालन करते हुए स्थैर्य का महत्व अधिक है ।
बाकी तो सब पढ़कर ही समझ में आता है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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