|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *व्यवहारनीति* " ( २८१ )
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*श्लोक*----
" सत्यानुसारिणी लक्ष्मीः कीर्तिस्त्यागानुसारिणी ।
अभ्याससारिणी विद्या , बुद्धिः कर्मानुसारिणी " ।।
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*अर्थ*----
लक्ष्मी हमेशा सत्य के पीछे आती है । कीर्ती त्याग के पीछे जाती है। विद्या अभ्यास से ही प्राप्त होती है और बुद्धीपर कर्म का ही अंकुश रहता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
सुदीर्घ अनुभव के बाद सुभाषितकार ने यह मत व्यक्त किया है।
लक्ष्मी, कीर्ती , विद्या और बुद्धी यह चार जीवन के महत्वपूर्ण अंग है।
हर एक व्यक्ति को यह चार प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रहती है ।
यह चार चीजें किसपर आधारित है या इनको कौनसा आधार दिया तो जीवन में यह स्थिर और सुस्थापित होती है यह सूक्ष्म अभ्यास से हमे सुभाषितकार बता रहे है -----
लक्ष्मी को हमेशा सत्य की बैठक ही चाहिए झूठ का पैसा हमेशा ही त्रासदायक होता है और वह कभी टिकता भी नही है ।
समाज के लिये, देश के लिए त्याग करनेवालों को कीर्ती मिलती है ।
और टिकती भी है । पैसा और सत्ता यह कीर्ती की बैठक कभी नही हो सकती ऐसी कीर्ती में शाश्वतता नही होती ।
नया विषय पढ कर जान कर और समझ कर ही विद्या आत्मसात कर सकते है । सर्वांग से समझ में आयी तो वह विद्या होती है । और फिर उसे ध्यान में रखना पडता है । ' अनभ्यासे विषं विद्या ' ऐसी कहावत है ।
और अच्छा अभ्यास होगा और विद्या अच्छे से अंगीकृत हो गयी है तो ही बुद्धी कर्मानुसार प्रेरणा लेती है । बुद्धि पर हमेशा कर्म का अंकुश रहता है । हम कई बार देखते है कि मनुष्य अपेक्षा से विपरीत बर्ताव करता है । हमेशा विशिष्ट तरह से बर्ताव करने वाला मनुष्य अचानक से अलग बर्ताव करता है । फिर हम कहते है --
' विनाशकाले विपरीत बुद्धि ' । यहां पर कर्मफलसिद्धान्त भी लागू होता है । माना कि हर एक व्यक्ति को बुद्धिस्वातन्त्र्य है पर हमेशा बुद्धि योग्य निर्णय लेगी ऐसा हम नही कह सकते ।
इतना बडा सिद्धांत सुभाषितकार ने चार चरणों में हमे कह दिया ।
ऐसे महान लोगों को ह्रदय से नमन ।👏👏👏👏👏👏
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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धन्यवाद वर्षा ताई....
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