|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *काव्यस्तुति* " ( १२९ )
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*श्लोक*---
" नैव व्याकरणज्ञमेव पितरं , न भ्रातरं तार्किकं
मीमांसानिपुणं नपुंसकमिति , ज्ञात्वा निरस्तादारा ।।
दूरात्संकुचितैव गच्छति पुनश्चाण्डालवनच्छान्दसं
काव्यालंकरणज्ञमेव कविता-- कांता वृणीते स्वयम् ।।
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*अर्थ*---
काव्यवधु यह वैयाकरण को पिता ; तार्किक को भाई मानती है ।
मीमांसक नपुंसक जानकर तुच्छ समझती है । वैदिक को चाण्डाल जानकर संकोच से दूर भागती है । किन्तु काव्यालंकार जानने वाले पुरुषों के गले में स्वयं आगे बढकर माला डालती है ।
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*गूढ़ार्थ*-----
काव्य हमेशा ही वधु के रूप में ही रहता है , लेकीन वह व्याकरण को अपना पिता समझती है क्यों कि उससे ही काव्यवधु का जन्म हुआ है । तार्किक को अपना भाई मानती है क्यों कि वह भाई की तरह तर्क लडाकर उसे रोकता है । मीमांसक कभी एक निर्णय पर पोहचते नही है वह हमेशा बीच में लटके रहते है इसलिए उन्हे नपुंसक जानकर उन्हे तुच्छ लेखती है । वैदिक को चाण्डाल समझती है क्यों कि वह उसे जान ही नही सकेगा उसमें कोमलता बिलकुल नही है इसलिए उससे दूर भागती है । किन्तु जो पुरुष उसका शृंगार रस , अलंकार , छन्द , गुण इत्यादिसे उसको सजाता है उसको लावण्य प्रदान करता है उसे वह स्वयं आगे बढकर माला डालती है ।
काव्यवधु का कितना सुन्दर मनोगत सुभाषितकार ने अपने वाणी से यहाँ पर प्रकट किया है न ? आपको क्या लगता ?
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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