|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *संसारमहिमा* " ( १७४ )
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*श्लोक*----
" यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको ।
यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र नैकोऽपि चान्ते ।।
इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलायन्द्वाविवाक्षौ ।
कालः काल्या भुवनफलके क्रीडति प्राणिसारैः " ।।
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*अर्थ*---
शतरंज के पट पर शुरू में अनेक प्यादे होते है पर उसमें से आख़िर तक एक ही टिकी रहती है । शुरूआत में एक फिर बीच में एक की घर में अनेक प्यादी आ जाती है । और आख़िर में एक ही बचती है या एक भी नही बचती । ऐसा ही तो संसार का खेल ( सारीपाट ) है । मानव यह प्यादी है और रात और दिन यह पासे फेंकते हुए काल यह मनमुराद खेलता है ।
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*गूढ़ार्थ*----
मानव जीवन की वास्तविकता यहाँ पर बतायी गयी है । मनुष्य यह संसार के सारीपाट पर प्यादा ही है और रात , दिन यह पासे है और काल यह पांसे फेंकते हुए काली के साथ खेलता रहता है । मनुष्य रूपी प्यादे हिलते रहते है और एक एक करके कम होते रहते है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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