|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सूर्यास्तवर्णन* " ( २५३ )
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*श्लोक*----
" परिपतति पयोनिधौ पतङ्गः---
सरसिरुहामुदरेषु मत्तभृंगः ।
उपवनतरुकोटरे विहङ्ग---
स्तरुणिजनेषु शनैः शनैरनङ्गः ।। "
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*अर्थ*----
सूर्य समुद्र में डूब रहा है ---
भ्रान्त भ्रमर कमल के पेट में जा रहा है ।
पंछी अपने घोसले में लौट रहे है ।
तरुणीयों के ह्रदय में मदन प्रवेश कर रहा है ।
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*गूढ़ार्थ*-----
दन्तकथा ऐसी है --- राजा भोज ने प्रथम पंक्ति की रचना की और पास में बैठे हुए बाण , महेश्वर और कालिदास को यही वर्णन अलग - अलग उत्प्रेक्षा देकर रचने को कहा ।
भोज -- सूर्य समुद्र में डूब रहा है ।
दुसरी पंक्ति *बाण* ने रची और तीसरी पंक्ति *महेश्वर* ने रची आखरी और चौथी पंक्ति *कालिदास* ने रची ।
कालिदास का रंगेलस्वभाव सब को परिचित है ही, इसलिये उसने --
सूर्यास्त होते ही --- तरुणीयों के ह्रदय में धीरे से *मदन* प्रवेश कर रहा है । शाम की जो अस्वस्थता ( हूरहूर ) उसका कितना सुन्दर वर्णन कालिदास ने किया है ।
है न वैशिष्टयपूर्ण ?
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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