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||'' सुभाषित-रसास्वादः''|| [३७८]
'' संकीर्णसुभाषित ''
'' मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङक्ते , कान्तेव चापि रमयत्यनीय खेदम् |
लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति, किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ?
अर्थ—माता की तरह रक्षण करती हे, पिता की तरह हित के मार्ग पर रखती हे ,मन में की खिन्नता निकाल देती हे | प्रियपत्नी की तरह हृदय का रंजन करती हे , जग में कीर्ति बढाती हे और वैभव भी प्रदान करती हे, इसतरह से कल्पलता की तरह विद्या मनुष्य का कौनसा हित साध्य नही करती ?
गूढार्थ—'विद्याधनं सर्वप्रधानं' ये उक्तिनुसार सुभाषितकार ने हमे विद्या का महत्त्व बताया हे | विद्या / शिक्षा अच्छी होगी तो हमे वह संकटों में बचाती हे , नीरक्षीरविवेक हमे विद्या ही सिखाती हे | जब भी मन उदास होता हे तब कोई अच्छी किताब पढो तो मन तुरंत शांत हो जाता हे | प्रियपत्नी की तरह वो हृदय को आनन्दित भी करती हे , कीर्ति ,वैभव सब हमे प्रदान करती हे | कुल मिलाकर विद्या कल्पलता की तरह कार्य करती हे |
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डॉ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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