|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *प्रहेलिकाः* " ( १६८ )
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*श्लोक*----
" द्वन्दोऽहं द्विगुरपि चाहं , मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः ।
तत्पुरुष कर्मधारय , येनाहं स्यां बहुव्रीहिः " ।।
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*अर्थ*----
मैं 'द्वंद्व' हूँ , मैं ' द्विगु ' भी हूँ । मेरे घर में हमेशा ' अव्ययीभाव ' रहता है । तत्पुरुष कर्मधारय होगा तो मैं ' बहुव्रीही ' हो जाऊंगा ।
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*गूढ़ार्थ*---
प्रस्तुत प्रहेलिका में प्रथमदर्शनी ध्यान में आते है वह सब समासों के नाम -- द्वंद्व ,द्विगु ,अव्ययीभाव, कर्मधारय ,तत्पुरुष और बहुव्रीहि !
परंतु उन शब्दों की तरफ ध्यान दोगे तो समझ में आयेगा कि बोलने वाले व्यक्ति के घर में के दारिद्रय का दर्शन यहाँ पर हो रहा है ।
इस सुभाषित में जिसकी गृहदशा प्रस्तुत की है वह कह रहा है की--- मैं " द्वंद्व " हूँ मतलब घर में हम दो लोग है । मैं " द्विगु " भी हूँ , मतलब हमारे यहाँ दो ( गु ) गायें है । मेरे घर में हमेशा " अव्ययीभाव " रहता है मतलब व्ययीभाव की चिन्ता मतलब खर्चे के बारे में हमेशा नकार ही रहता है ।
फिर वह खुद को कह रहा है --- " तत्पुरुष कर्मधारय " मतलब तत् पुरुष कर्म धारय मतलब हे ! गृहस्थ तुम कर्म = काम , कष्ट करो तो ही " बहुव्रीहि " मतलब बहु = बहुत । व्रीही = धान्य । तेरे घर में आयेगा ।
और हम पति -- पत्नी और दो गायें इन सबको बहुत अन्न प्राप्त होगा ।
कितना सुन्दर सुभाषित है न ? समास के नामों में से किसिके घर का " अठराविश्व द्रारिद्र्य " प्रकट हो रहा है । और कष्ट करके संपन्नता प्राप्त करने की उसकी इच्छा भी दृगोचर हो रही है ।
समास पाठांतर के लिए यह श्लोक बहुत उपयुक्त है ।
संस्कृत भाषा का श्लोकसामर्थ्य भी यहाँ पर दिखता है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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