|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *पातुवः* " ( १८३ )
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*श्लोक*-----
" कस्त्वं ? " "शूली " " मृगय भिषजं "
" नीलकण्ठः प्रियेऽहं "
" केकामेकां कुरु " " पशुपति " " नैंव दृश्ये विषाणे " ।।
" स्थाणुर्मुग्धे ! " " न वदति तरु " " र्जीवितेशः शिवाया "
" गच्छाटव्या " मिति ह्रतवचाः
पातु वश्चन्द्रचूडः ।।
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*अर्थ*----
शंकर जब घर को लौटे तो पार्वती ने द्वार नही खोला और पूछने लगी ---पार्वती-- कौन हो आप ? शंकर ---- मैं शूली हूँ ।
पार्वती-- कपाल शूल है तो वैद्य के पास जाओ ।
शंकर -- प्रिये मैं निलकण्ठ हूँ ।
पार्वती--- नीलकण्ठ मतलब मयूर ? तो फिर केकारव करके दिखाओ।
शंकर--- वैसा नही मैं पशुपति हूँ ।
पार्वती --- आपके सिंग नही दिख रहे फिर ?
शंकर--- मुग्धे ! मैं स्थाणु हूँ ।
पार्वती--- मतलब आप वृक्ष हो ? लेकीन वृक्ष तो कभी बोलता नही ।
शंकर--- मैं शिवी का प्राणनाथ हूँ ।
पार्वती--- अच्छा ! मतलब आप लोमड़ी के प्राणनाथ हो ? फिर यहाँ क्या कर रहे हो ? जंगल में जाईये ।
इस तरह से प्रत्येक शब्द का दूसरा ही अर्थ लेकर पार्वतीने शंकर को निरुत्तर किया । ऐसा निरुत्तर हुआ शंकर आपकी रक्षा करे ।
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*गूढ़ार्थ*---
शूली , नीलकण्ठ , पशुपति , स्थाणु और शिवी इन सबके अर्थ पर सुभाषितकार ने श्लेष साधा है । शंकर -- पार्वती पर मानवीयता का आरोप कर के यहाँ पर सुभाषितकार ने उत्तम नर्म विनोद किया है ।
हमे हंसी छुटे बिना नही रहती ।
शंकर आप सबकी रक्षा करे ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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