|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *सामान्यनीति* " (२१३ )
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*श्लोक*---
" यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे अस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान नामरुपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषम् उपैति दिव्यम् ।। "
( मुण्डकोपनिषद् ३• २• ८ )
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*अर्थ*----
जिस तरह से नदियां अपना नाम और रूप छोडके समुद्र में विलीन हो जाती है , उसी तरह विद्वान ( आत्मज्ञानी ) मनुष्य अपना नाम और रूप इससे मुक्त होकर श्रेष्ठ ऐसे दिव्य पुरुष के पास पोहचता है।
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*गूढ़ार्थ*----
उपनिषद का वाक्य सुभाषितकार ने यहाँ पर सुभाषित के तौर पर दिया है । अर्थात इसमें बहुत गहन अर्थ तो है ही। विद्वान को आत्मज्ञान कब होगा ? जब वह अपना अहंभाव छोडेगा । उसके बाद ही उसे श्रेष्ठतर दिव्य पुरुष मतलब परमात्मा की प्राप्ति संभव है ।
और ऐसे ही आत्मज्ञानी पुरुष करते है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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