|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *कृपणनिन्दा* " ( १८४ )
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*श्लोक*---
" कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति ।
अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति " ।। ( कवितामृतकूपः )
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*अर्थ*----
कृपण के जैसा दान देनेवाला कोई हुआ नही और होगा भी नही , वह इतना निस्पृह और त्यागी है की अपने संपत्ति को हाथ से स्पर्श भी नही करता है और दूसरे को दान दे देता है ।
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*गूढ़ार्थ*-----
कृपण मनुष्य आयुष्यभर धन जमा करके ही रखता है और अपने हाथों से वह किसी को भी कभी नही देता । इसलिये उसके मृत्यु के पश्चात् वह धन इतर लोग ही ले जाते है ।
अहा ! कितनी निस्पृहता, निस्संगता , और दानी रहता है कृपण।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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