Monday, July 6, 2020

Atma - Hindi essay

आत्मा ||
भारतीय तत्वज्ञान में आत्मा यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण कल्पना हें | यास्काचार्य ने इस शब्द की व्युत्पत्ती ऐसे बतायी हें---  [निरुक्त ३.१३.२]
''आत्माऽतते वप्ति वापि वाप्त इव स्याद् यावद् व्याप्तिभूत इति '' |
अर्थ—आत्मा शब्द अत्= सतत चलना अथवा व्यापना इस धातू से बना हें | सतत गतिशील रहने के कारण उसे ये संज्ञा प्राप्त हुई हें | 
आद्यशंकराचार्य ने आत्मा शब्द की व्युत्त्पत्ती कहते समय एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया हें वह ऐसा--- 'यच्चाप्नोति यदाद्त्ते यच्चात्ति विषयानिह | 
यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते ||''
अर्थ—यह वस्तुजात को व्यापता हें, वस्तुमात्र का ग्रहण करता हें, इस लोक में विषयों का उपभोग लेता हें| और इसको सदैव सद्भाव रहता हें | इसलिए उसे आत्मा कहते हें | 
भिन्न भिन्न दर्शनों में आत्माविषयक भिन्न भिन्न व्याख्यायें मिलती हें| 
लोकायत दर्शन—'' चैतन्यविशिष्ट्यः कायः पुरुषः||'' 
अर्थ—चैतन्यविशिष्ट शरीर  मतलब आत्मा हें | 
बौध्द मत से आत्मा मतलब शून्य | जैन लोग जीवतत्व को आत्मा मानते हें | जीव [आत्मा] ये सूक्ष्म और अतींद्रिय होने के कारण दिखता नही हें | न्याय-वैशेषिक मतानुसार आत्मा और मन भी अनेक हें | ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न , सुखदुःख ,धर्माधर्म और भावनाख्य संस्कार ये सब आत्मा के विशेष गुण हें | सांख्य मतानुसार आत्मा पुरुष नित्य और चिद्रूप मतलब ज्ञानस्वरूप हें | वो केवल द्रष्टा तथा कूटस्थ हें | पातंजल अनुयायी सांख्य मत को ही अपनाते हें| मीमांसको के अनुसार आत्मा अहं प्रतीती का विषय हें और सुखदुःख उपाधिरहित नित्य वस्तू हें | आत्मा अंशभेद से ज्ञानस्वरूप और जड़स्वरूप हें ऐसा भाट्ट की धारणा हें |तांत्रिको के मत से आत्मा विश्वोत्तीर्ण प्रकाशात्मक हें | 
अदैत वेदान्त के अनुसार आत्मव्याख्या--- '' चिद्रूपः कर्तुत्वविरहितः परस्मादभिन्नः प्रत्यागत्मा | '' 
अर्थ—[ प्रत्यक ] आत्मा ये चैतन्यरूप, कर्तुत्व-भोकतृत्व विरहित और परब्रह्मा से अभिन्न हें | 
आत्मा के स्वरूपविषयक उपनिषदो में विस्तृत विचार किया गया हें | ये शब्द ऋग्वेद में प्रथम प्राप्त होता हें | असू, प्राण और आत्मा ये शब्द समानार्थी ऋग्वेद में अनेक जगहों पर हें | आत्मन् ये शब्द मुख्य अर्थ से वेद में आया हें | शरीर में की जीवनशक्ती ये पहला अर्थ और संपूर्ण व्यक्ति ये दुसरा अर्थ हें | संपूर्ण व्यक्तित्व में  शरीर, इन्द्रिये,अवयव,मन,वाणी आदि गोष्टी अंतर्भूत हें | इसी व्यक्तित्व का अहम्  ये संज्ञा से आविष्कार होता हें | आत्मा ये शब्द साधारणतः अहम् इस अर्थ का बोधक ऐसा वैदिक परिभाषा में रुढ हें | वेदों की तात्विक परिभाषा में अथवा धार्मिक विचारों में आत्मा शब्द चैतन्य, जीवनशक्ति, प्राण अथवा जीव इस अर्थ से आया हें | 
इस आत्मा का वास्तव्य हृदय में हें ऐसा ज्यादातर उपनिषत्कारो का मत हें | आत्मा और शरीर इनका परस्परं संबध क्या हें इसके उत्तर में प्रजापती कहता हें--- '' आत्मानं रथिनं विध्दि | शरीरं रथमेव तु | बुध्दीं तु सारथिं | विध्दी मनः प्रग्रहमेव च ||'' इस देहरूपी रथ का आत्मा ये सारथी हें और वह शुध्द, शांत, शाश्वत, अज और स्वतंत्र हें | [ मै.उ.२.३-४ ] वह सब शारीरिक व्यापारों का अधिपति और इन्द्रियों का राजा हें वह इन्द्रियों व्दारा उपभोग लेता हें और इन्द्रियां उसके आश्रयपर ज़िंदा रहती हें | [कौषी.उ.४.२० ] आत्मा आकार से ' अंगुष्ठमात्र ' हें यह कल्पना उपनिषत्काली सर्वश्रुत दिखती हें | 
' ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः | ' इसका अर्थ हें ज्ञान के बिना मुक्ति नही हें | ऐसा भारतीय तत्त्वज्ञान में उच्चारव से उद्घोषित किया हें | 'स्व'रूप का साक्षात्कार हुए बिना शास्त्र का केवल अध्ययन व्यर्थ हें | इसलिए उपनिषदों में ध्यानयोग और तत्त्वज्ञान इनके आधार पर परमतत्व की उपलब्धि यही मानवी जीवन का ध्येय बताया गया हें | 
आत्मज्ञान का एक मार्ग बृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्क्यने मैत्रेयी को बताया हें वह ऐसा श्रवण, मनन, निदिध्यासन इन उपायों से आत्मा का ज्ञान होता हें और एक बार आत्मज्ञान हो जाने के बाद फिर सब वस्तुओं का ज्ञान होता हें | [२.४.५ ] 
श्रवण मतलब उपनिषद में जो वाक्य हें उनका स्वाध्याय, मनन मतलब उसपर प्रमाणपूर्वक विचार करना और निदिध्यासन मतलब आत्मा का सतत चिन्तन करना | इसको ही ज्ञानमार्ग कहा गया हें | इसके अलावा कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग ऐसे आत्मज्ञान के दो और मार्ग बताये गये हें | 
हमारे शरीर स्थित आत्मा को नमस्कार | हरि ॐ |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
डॉ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र

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