|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *वित्तमहिमा* " ( १७३ )
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*श्लोक*---
" बधिरयति कर्णकुहरं , वदनं मूकयति , नयनमन्धयति ।
कुटिलयति गात्रयष्टिं संप्रद्रोगोऽयमद्भुतो लोके " ।।
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*अर्थ*---
कर्ण बधिर करता है । मुख को मौन करता है । आंखों को अंधा करता है । और शरीर को तेढामढा करता है ।
सही में धनरूपी रोग बडा ही अद्भुत है ।
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*गूढ़ार्थ*-----
सुभाषितकार ने कितनी खूबी से हमे धनरूपी रोग के लक्षण बताये है । सही में अचानक से जिसके पास ढेर सारी संपत्ति आ जाती है वह अपने पुराने रिश्तों को और मित्रों को भूल जाता है । उसके हर गात्र और शरीरभाषा कैसे बदलती है इसका ही वर्णन प्रस्तुत श्लोक में किया गया है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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