|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *आत्मा का महत्त्व* " ( १३३ )
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*श्लोक*---
" अहंकारो धियं ब्रूते " मा सुप्तं प्रतिबोधय ।
उदिते परमानन्दे न त्वं , नाहं , न वा जगत् " ।।
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*अर्थ*----
अहंकार बुद्धि को कह रहा है , " वह जो सोया हुआ (आत्मा) है ,उसे मत जगाओ । क्यों कि परमानन्दस्वरूप वह ( आत्मा ) एक बार जागृत हो गया तो , ' तू और मैं ' और यह सब जगत् नष्ट हो जायेगा " ।
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*गूढ़ार्थ*---
इस रूपक में कितना बडा अर्थ छुपा है यह बारकीसे पढने के बाद ही समझ में आयेगा ।
बुद्धि और अहंकार का प्रेमविवाह हुआ है उन्हे अपने प्रणय का स्वच्छन्द खेल खेलना है । लेकीन अहंकार को डर है कि कहीं बुद्धि आत्मा को जागृत न कर दे इसलिए वह उसे मना कर रहा है ।
क्यों कि एकबार वह पूर्णानन्दस्वरूप आत्मा जागृत हो गया कि ---
" अहंकार और बुद्धि " और यह " संसार "कोई अस्तित्व ही नही रहेगा ।
अहंकार और बुद्धि सबको ही होती है किन्तु अच्छे कर्मों के लिए अहंकार हमेशा बुद्धि को रोकता है ।
सुभाषितकार ने छोटेसे दो पंक्तियों में हमे जीवन का गहन और गहरा सार बताया है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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