|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *व्यवहारनीति* " ( ९२ )
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*श्लोक*-----
" सर्पाः पिबन्ति पवनं न च दुर्बलास्ते
शुष्कैस्तृणैर्वनगजाः बलिनो भवन्ति ।
कन्दैफलैर्मुनिवराः क्षपयन्ति कालम्
संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम् ।।
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*अर्थ*-----
सांप वायु पीकर रहता है तो भी वह कभी दुर्बल नही होता ।
हाथी सुखा घास खाकर भी शक्तिवान होता है ।
ऋषि मुनि कंद- मुल खाते है तो भी वह सामर्थ्यवान होते है ।
संतोष ही मनुष्य का श्रेष्ठ आधार है ।
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*गूढ़ार्थ*----
समाधान में सुख माननेवाले को परिस्थिति अनुकूल नही भी रही तो बहुत फर्क पडता नही । संतोष मानने पर है । अपने मन पर है ।
घोड़े पे सवार व्यक्ति कभी नही देखनी चाहिए तो पैदल चलनेवाले व्यक्ति की तरफ़ देखना चाहिए ऐसा अनुभवी लोग बताते है ।
अपने से जिसके पास कम है उसकी तरफ़ देख कर संतोष करना चाहिए । उनसे ईर्षा नही करनी चाहिए ।
अपनी किसी के साथ भी तुलना ना करते हुए अपनी अपने साथ ही स्पर्धा करनी चाहिए ।
सुभाषितकार ने तीन उदाहरण देकर हमे समझाया है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हमे संतोष से रहकर अपना स्थान और स्वत्व को संभालना आना चाहिए ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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