|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *तत्त्वज्ञाननीति* " (१०३ )
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*श्लोक*---
" प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम् ।
तृतीये नार्जिता कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यसि ? " ।।
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*अर्थ*---
आयुष्य के पहले भाग में विद्यार्जन किया नही , दुसरे भाग में धन कमाया नही और तिसरे भाग में कीर्ति भी अर्जित नही की तो वृद्धावस्था में कौन क्या करेगा ?
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*गूढ़ार्थ*----
मानव के आयुष्य के चार भाग की कल्पना की है । प्रथम भाग में विद्यार्जन करना चाहिए जो मनुष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है और फिर दुसरे भाग में धनार्जन अवश्य करना चाहिए । तीसरे भाग में सत्कार्य करके किर्ति का अर्जन करना चाहिए । यह सब पहले किया तो फिर वृद्धावस्था आनंद से गुजरती है । भारतीय संस्कृति में कब क्या करना चाहिए इसके कुछ दण्डक है । वह समय पर अनुसरित किये गये तो ठीक रहता है । समय निकल जाने के बाद किसी भी साधन का कोई उपयोग नही होता है । किस आयु में क्या कमाना चाहिए यही इस सुभाषित में बताया गया है । और जो अर्जन करना है वह एक दूसरे पर आधारित है ।
सुभाषितकार ने भारतीय आश्रम व्यवस्था का बहुत सुन्दर तरीके से वर्णन प्रस्तुत सुभाषित में किया है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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