|| ॐ ||
" सुभाषितरसास्वादः "
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" कलिमहिमा " ( ८२)
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श्लोक----
" परान्नेन मुखं दग्धं हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात् ।
परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कुतः शापः कलौ युगे " ।। ( वृद्धचाणक्यशतकम् )
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अर्थ----
इस कलियुग में परान्नसेवन करके लोगों का मुख जल गया है ।
दान ले ले कर सब लोगों के हाथों में छाले पड गये है ।
और परस्त्री के चिन्तन से सबका मन भी जल गया है ।
इस कलियुग को किसका शाप लग गया है पता नही ।
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गूढ़ार्थ----
कितना भीषण वास्तव सुभाषितकार ने हमे बताया है ।
आज लोग घर में कम बाहर ज्यादा भोजन करने लगे है ।
परान्न की तो संकल्पना ही नष्ट हो गयी है ।
दान देना कोई नही चाहता किन्तु लोनरूपी दान हर कोई चाहता है।
और परस्त्री मातेसमान यह उक्ति तो कब की नष्ट होकर किसी पुराने जमाने की लगने लगी है ।
सुभाषितकार ने हमे आयना ही दिखाया है ।
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卐卐ॐॐ卐卐
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
" सुभाषितरसास्वादः "
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" कलिमहिमा " ( ८२)
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श्लोक----
" परान्नेन मुखं दग्धं हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात् ।
परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कुतः शापः कलौ युगे " ।। ( वृद्धचाणक्यशतकम् )
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अर्थ----
इस कलियुग में परान्नसेवन करके लोगों का मुख जल गया है ।
दान ले ले कर सब लोगों के हाथों में छाले पड गये है ।
और परस्त्री के चिन्तन से सबका मन भी जल गया है ।
इस कलियुग को किसका शाप लग गया है पता नही ।
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गूढ़ार्थ----
कितना भीषण वास्तव सुभाषितकार ने हमे बताया है ।
आज लोग घर में कम बाहर ज्यादा भोजन करने लगे है ।
परान्न की तो संकल्पना ही नष्ट हो गयी है ।
दान देना कोई नही चाहता किन्तु लोनरूपी दान हर कोई चाहता है।
और परस्त्री मातेसमान यह उक्ति तो कब की नष्ट होकर किसी पुराने जमाने की लगने लगी है ।
सुभाषितकार ने हमे आयना ही दिखाया है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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