|| *ॐ* ||
|| *सुभाषितरसास्वादः* ||
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|| *सन्तोष प्रशंसा* || (३५)
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*श्लोक*-----
" गन्धाढ्यां नवमल्लिकां मधुकरस्त्यक्त्वा गतो यूथिकां
तं दृष्ट्वाशु गतः स चन्दनवनं पश्चात्सरोजं ततः।
बद्धस्तत्र निशाकरेण सहसा रोदत्यसौ मन्दधीः
संतोषेण विना पराभवपदं प्राप्नोति सर्वे जनाः "।। ( भ्रमराष्टकम् )
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*अर्थ*----
पुष्पलोभी भ्रमर ने बहुत सुवासिक ऐसे मल्लिका ( मोगरा ) पुष्प का मादक सुवास लिया । फिर वह मल्लिका छोडकर यूथिका ( जाई )
के पुष्प पर गया लेकिन जाई की सुंदरता से उसका मन नही भरा ।फिर वह भ्रमर चन्दनवन में गया । लेकीन वहाँ पर भी उसका समाधान नही हुआ और आखिर वह कमल पुष्प के उपर जा बैठा किन्तु उसी समय चन्द्रदोय होने के कारण कमल की पंखुड़ियां बंद हो गयी । जिसके कारण भ्रमर उसमें बंद हो गया । और फिर रोने लगा ।
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*अर्थ*----
संतोषवृत्ती के अभाव में कैसा दुःख भोगना पड़ता है इसका सुन्दर उदाहरण सुभाषितकार ने भ्रमर के माध्यम से दिया है ।
जो मिल रहा उसमें अगर संतुष्ट नही होते तो आखिर रोने की बारी ही आती है । संतोषवृत्ती के अभाव में सब लोगों को यही दुःख भोगना पड़ता है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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