Monday, July 15, 2019

Rasa Siddhant

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    " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ९७ )
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" *रससिद्धान्त* "(१)
साहित्यशास्त्र में रससिद्धान्त का विवेचन सर्वप्रथम भरत के नाट्यशास्त्र में हुआ है। "विभाव-अनुभाव-व्यभिचारि-संयोगाद् रसनिष्पत्तिः" इस नाट्यशास्त्रोक्त सूत्र के आधार पर साहित्य शास्त्रीय ग्रन्थों में रससिद्धान्त की चर्चा हुई है। विभाव, अनुभाव और व्यभिचारि(या संचारी) भावों के संयोग से काव्य नाटकादि साहित्य के द्वारा सह्रदय पाठक के अन्तःकरण में रसनिष्पत्ति होती है। रससूत्र में प्रयुक्त "निष्पत्ति" शब्द का अर्थ निर्धारित करने में मतभेद निर्माण हुए। इस रससिद्धान्त का विवेचन करते हुए कुछ महत्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग साहित्यशास्त्र में हुआ है। जैसे---
क्रमशः आगे.....
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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| *ॐ*||
   " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ९८ )
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" *रससिद्धान्त* "(२)
(१) स्थायी भाव-- मनुष्य के अन्तःकरण में निसर्गतः रति,हास, शोक ,क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय नामक आठ भाव स्वयंभू होते है। इनके अतिरिक्त निर्वेद , वात्सल्य  और भक्ति इत्यादि अन्य स्थायी भाव भी माने गये है। इन स्थायी भावों की अभिव्यक्ति या उद्दिपित अवस्था को रस कहते है।
(२) विभाव-- वासनारूपतया स्थितान् रत्यादिन् स्थायिनः विभावयन्ति, रसास्वांदाकुरयोग्यतां नयन्ति इति विभावाः। अर्थात् जिन के कारण अन्तःकरण में वासना या प्राक्तन संस्कार के रूप से अवस्थित रति ,शोक ,हास आदि स्थायी भाव आस्वाद के योग्य अंकुरित होते है वे विभाव कहलाते है। विभाव के दो प्रकार माने जाते है(१) आलम्बन और (२) उद्दीपन। काव्य एवं नाटक में नायक-नायिका आलम्बन विभाव और उनके संबंध के अवसर पर वर्णित नदीतीर, कुंजवन आदि स्थल शरद् ,वसन्त आदि  समय ,गुरुजनों का असान्निध्य जैसी परिस्थिति को उद्दीपन विभाव कहा जाता है जिनके कारण सह्रदय दर्शक या पाठक के अन्तःकरण में रति स्थायी भाव का उद्दीपन होता है।
(३) अनुभाव-- "अनुभावयन्ति रत्यादीन् -इति अनुभावाः" अर्थात् ह्रदयस्थ स्थायी भाव का अनुभव देने वाले स्वेद, स्तम्भ ,रोमांच, अश्रुपात इत्यादि शरीरगत लक्षणों को अनुभाव कहते है।
(४) व्यभिचारीभाव-- "विशेषेण अभितः काव्ये स्थायि-नं चारयन्ति इति व्यभिचारिणः" अर्थात् स्थायी भाव का परिपोष करते हुए  उसे काव्य में सर्वत्र संचारित करने वाले अस्थिर एवं अनिश्चित भावों को व्यभिचारी या संचारी भाव कहते है। शास्त्रकारों ने ३३ प्रकार के व्यभिचारीभाव  निर्धारित किये है--
वैराग्य ,ग्लानि, शंका, मत्सर, मद ,श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता ,मूर्च्छा ,स्मृति, धैर्य लज्जा, चापल्य ,हर्ष ,आवेग ,जडता, गर्व, खेद ,उत्सुकता, निद्रा, अपस्मार ,स्वप्न जागृति, क्रोध ,अवहित्था, उग्रता ,मति, व्याधि ,उन्माद ,मरण ,त्रास और वितर्क। 
क्रमशः आगे......
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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