Sunday, July 7, 2019

Drama - Sanskrit ganga

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   " *संस्कृत-गङ्गा* " ( १०८ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(४)
" *भरत का नाट्यशास्त्र*"
भरताचार्य कृत नाट्यशास्त्र यह ग्रन्थ भारतीय नाट्यशास्त्रीय वाड़्गमय में अग्रगण्य और परम प्रमाणभूत याने "पंचम वेद" माना गया है। भरत का काल निश्चित नही है। इस प्राचीन नाट्यशास्त्रकार ने अपने पूर्ववर्ती शिलाली, कृशाश्व, धूर्तिल, शाण्डिल्य ,स्वाति, नारद ,पुष्कर आदि शास्त्रकारों का नामोल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त अभिनवभारती (भरत नाट्यशास्त्र की टीका) में सदाशिव, पद्म और कोहल का उल्लेख आता है। धनिक के दशरूपक में द्रुहिण और व्यास के नाम मिलते है और शारदातनय कृत भावप्रकाश में आंजनेय का निर्देश हुआ है। ये सारे नाम पुराणों ,सूत्रग्रन्थों और वैदिक संहिताओं में यत्र तत्र मिलते है। 
भरत के नाट्यशास्त्र में संगीत ,नृत्य ,शिल्प ,छन्दशास्त्र, विविध भाषा प्रयोग, रंगभूमि की रचना, नट ,श्रोतागण इत्यादि नाट्यकलाविषयक विविध विषयों का विवेचन हुआ है। मातृगुप्त, भट्टनायक, शंकुक (९ वी शती) और अभिनवगुप्त (ई. १० वी शती) इन विद्वानों ने नाट्यशास्त्र पर टीकाएं लिखी है। अग्निपुराण ( अ. ३३७-३४१) में नाट्यविषयक जो भी जानकारी दी गयी है उसका आधार भरतनाट्यशास्त्र ही माना जाता है।
क्रमशः आगे.......
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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     " *संस्कृत-गङ्गा* " ( १०९ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(५)
" *नाट्य की कथारूप उपपत्ति*"
भरतमुनि ने नाट्य के उद्गम की उपपत्ति कथारूप में बताई है। तदनुसार त्रेतायुग में कामक्रोधादि विकारों से त्रस्त इन्द्रादि देवता ब्रह्माजी के पास जाकर स्त्री- शूद्रादि अज्ञ लोगों का मनोरंजन करने वाले दृश्य और श्राव्य क्रीडासाधन की याचना करने लगे। ब्रह्माजी ने उनकी बात मानकर चतुर्वग और इतिहास से सम्मिलित "पंचम वेद" अर्थात् नाट्यवेद निर्माण किया है। 
"जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथवर्णादपि।।" 
इस वचन के अनुसार ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से नृत्यादि अभिनय और अथर्ववेद  से रस लेकर ब्रह्माजी ने उन देवताओं की अपेक्षा पूरी की। ब्रह्मा के आदेश से विश्वकर्मा ने रंगशाला बनाई। अपने सौ पुत्रों की सहाय्यता से, शिवजी से ताण्डव, पार्वती से लास्य और विष्णु भगवान से नाट्यवृत्तियाॅ प्राप्त कर , इन्द्रध्वज महोत्सव के अवसर पर भरतमुनि ने प्रथम नाट्यप्रयोग किया जिसमें देवताओं की विजय और असुरों की पराजय दिखाई गयी थी। अपने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में नाट्यप्रयोग की यह अद्भूत उपपत्ति भरतमुनि ने दी है। इसी अध्याय में नाट्य की व्याख्या बताई गयी है।
" योऽयं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमन्वितः। सोऽड़्गाद्यभिनयोपेतः नाट्यमित्यभिधीयते।।(नाट्यशास्त्र १-११९)।
अर्थात् इस संसार में व्यक्त हुआ मानवों का सुखदुःखात्मक स्वभाव जब अंगादि अभिनयों द्वारा प्रदर्शित होता है तब उसे नाट्य कहते है।
क्रमशः आगे.....
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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[21/06, 07:23] +91 88882 34900: || *ॐ*||
     " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ११० )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(६)
" *नाट्यशास्त्रीय प्रमुख ग्रन्थ*"
पाणिनि की अष्टाध्यायी में उल्लेखित नटसूत्र अभी तक प्राप्त नही हुए। अतः भरत का "नाट्यशास्त्र" नामक आकर ग्रन्थ ही इस विषय का आद्य और सर्वश्रेष्ठ  ग्रन्थ माना गया है। ३६ अध्यायों के इस ग्रन्थ का स्वरूप  एक सांस्कृतिक ज्ञानकोश के समान है। अतः इसमें तत्कालीन एवं संगीत आदि आनुषंगिक कला विषयक भरपूर जानकारी प्राप्त होती है। विषयों की विविधता के कारण प. बलदेव उपाध्याय, डाॅ गो.के. भट जैसे विद्वान नाट्यशास्त्र को एककर्तृक नही मानते। भरत मुनि ने दी हुई  नाट्यमंडप अथवा प्रेक्षागृह विषयक जानकारी उस प्राचीन काल की शिल्पकला की परिचायक है। 
नाट्यशास्त्र मे विकृष्ट (लंब चतुष्कोणी) चतुरस्त्र (चतुष्कोणी) त्र्यस्त्र (त्रिकोणी) नाट्यगृह का वर्णन दिया है। इनके भी प्रत्येकशः जेष्ठ,मध्यम और कनिष्ठ प्रकार बताये है। नाट्यगृह के चार स्तंभो को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र  संज्ञाएं थी। प्रेक्षागृह में रंगपीठ ,रंगशीर्ष और मत्तवारणी नामक विभाग कलाकारों के उपयोग के लिए रखे जाते थे। पर्दा रहता था। रंगभूमि पर दो पर्दे लगाकर उनसे तीन विभाग करने की प्रथा थी। 
संगीत चूडामणि, मानसार इत्यादि ग्रन्थों में भी नाट्यगृहों का वर्णन मिलता है परंतु उनका प्रमाण नाट्यशास्त्र के प्रमाण से भिन्न था।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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   " *संस्कृत-गङ्गा* ( १११ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(७)
" *नाट्यशास्त्रीय प्रमुख ग्रन्थ* "
भरत नाट्यशास्त्र के बाद लिखे हुए नाट्यविषयक ग्रन्थों में दशरूपक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। रूपक अर्थात् दृश्यकाव्य को ही प्रतिपाद्य विषय मानकर भरतकृत नाट्यशास्त्र के आधारपर इस ग्रन्थ की रचना विष्णुपुत्र धनंजय ने की है। धनंजय मालव देश के परमारवंशीय राजा मुंज के समकालीन ( ई. १० वी शती) थे। दशरूपक पर विष्णुपुत्र धनिक ने "अवलोक" नामक टीका लिखी है। अर्थात् धनंजय और धनिक सहोदर थे।
दशरूपक के आधार पर विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रीय अथवा प्रतापरुद्रशोभूषण नामक ग्रन्थ लिखा है। इस संपूर्ण ग्रन्थ का विषय है साहित्यशास्त्र परंतु उसके पाँचवे  भाग में ग्रन्थकार ने एक पंचांकी नाटक उदाहरण के लिए प्रस्तुत किया है, जिसमें अपने आश्रयदाता वरंगळ के काकतीय वंश के राजा प्रतापरुद्र (ई. १३-१४ वी शती) की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 
कविराज विश्वनाथ का साहित्यदर्पण यह ग्रन्थ साहित्यशास्त्र के अंगोपांगो का विवेचन करता है। साहित्यदर्पण के तिसरे और छठे परिच्छेद में नाट्यशास्त्र की सोदाहरण चर्चा विश्वनाथ ने की है। यह सारा प्रतिपादन नाट्यशास्त्र  और दशरूपक पर आधारित है। 
इनके अतिरिक्त सागरनंदी(११ वी शती) कृत नाटकलक्षण-रत्नकोश, हेमचन्द्र का काव्यानुशासन, रामचंद्र- -गुणचंद्र( हेमचंद्र के शिष्य) का नाट्यदर्पण (जिस में धनंजय के मतों का खण्डन किया है) रुय्यक (रुचक) कृत नाटकमिमांसा,  भोजकृत सरस्वतीकण्ठाभरण तथा शृंगारप्रकाश और शारदातनयकृत भावप्रकाश ग्रन्थ नाट्यशास्त्रीय वाड़्गमय में उल्लेखनीय है। श्री. रूपगोस्वामी(१६ वी शती) ,कामराज दीक्षित (१७ वी शती) नरसिंह सूरि(१८ वी शती) और कुरविराम ने भी नाट्यविषयक चर्चा अपने अपने ग्रन्थो में की है। 
नाट्यशास्त्र विषयक विविध ग्रन्थो में (१) प्रतिपाद्य विषय एक ही होने के कारण (२) उनका मुलस्त्रोत प्रायः एक ही होने के कारण विषय के विवेचन में समानता है। कही कही किञ्चित् मतभेद  मिलता है। 
नाममात्र मतभेद के अतिरिक्त संस्कृत नाट्यशास्त्र में सर्वत्र समानता ही मिलती है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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    " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ११२ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(८)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग* "
नाट्य के अर्थ में "रूपक" शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है। संस्कृत नाट्यवाड़्मय में रूपक और उपरूपक दो प्रमुख भेद मिलते है। रूपक नाट्यात्मक और उपरूपक नृत्यात्मक होते है। रूपक रसप्रधान, चतुर्विध अभिनयात्मक और वाक्यार्थाभिनयनिष्ठ होता है, तो उसके विपरित नृत्य भावाश्रय और पदार्थभिनयात्मक होता है। जो ताललयाश्रय तथा अभिनयशून्य अंगविक्षेपात्मक होता है उसे "नृत" कहा गया है। 
रूपक के दस प्रकार--- नाटक, प्रकरण, भाण ,व्यायोग, समवकार ,डिम ,ईहामृग, उत्सृष्टिकांक और प्रहसन इन दस रूपकों का प्रयोजन या फल माना है। वस्तु(कथा) , नायक और रस इन तीन कारणों से रूपक के दस भेद निर्माण होते है। तद्नुसार दसों रूपकों का स्वरूपभेद संक्षेपतः बताया जा सकता है।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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   " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ११३ )
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" *नाट्यवाड़्मय* "(९)
" *नाट्यशास्त्र का अंतरंग*"
(१)नाटक-- कथा प्रख्यात। नायक: दिव्य, अदिव्य, दिव्यादिव्य एवं। धीरोदात्त गुणसंपन्न। नायिका: नायक के अनुरूप दिव्य अथवा अदिव्य। प्रधान रस: शृंगार अथवा वीर। अंकसंख्या: ५ से १० तक। दस से अधिक अंकवाले नाटक को विश्वनाथ ने " महानाटक" की संज्ञा दी है।
(२) प्रकरण-- कथा: कल्पित। नायक: अमात्य, ब्राह्मण  अथवा  वणिक्(व्यापारी) धीरप्रशान्त गुणयुक्त। ( रामचंद्र- गुणचंद्र के मतानुसार धीरोदात्त) नायिका: कुलस्त्री अथवा वेश्या। विदूषक और विट आवश्यक। अंकसंख्या: १०।
(३) भाण-- एक धूर्त पात्र चाहिए। उक्तिप्रयुक्ति। भारती वृत्ति।अंक: १। प्रधानरसः वीर , शृंगार , हास्य। वृत्ति: कैशिकी।
(४) प्रहसन-- (१) शुद्ध उत्तम पात्रयुक्त।(२) संकीर्णः अधम पात्रयुक्त (३) विकृतः अंकसंख्या २।
(५) डिम-- प्रख्यात वस्तु। शृंगार और हास्य रस वर्ज्य। नायक संख्या १६। अंक संख्या ४। वृत्ति: सात्वती और आरभटी। अंगीरसः रौद्र।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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