Monday, June 17, 2019

Vedanta darshan

|| *ॐ*||
     " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ८२ )
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" *वेदान्त दर्शन* "(६)
समाधिविचार:-- ज्ञेय पदार्थ में चित्त की ज्ञानावस्था में जो निश्चल अवस्था होती है वही वेदान्त मतानुसार समाधि है। चित्त की इस समाधिस्थ अवस्था के दो भेद होते है।(१) सविकल्प और (२) निर्विकल्प। 
सविकल्प समाधि में ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान इस त्रिपुटी का भेदज्ञान रहते हुए भी
"अहं ब्रह्माऽस्मि " स्वरूप अखण्डकारित चित्तवृत्ति रहती है।"विभिन्नता में अभिन्नता"यह केवल  कल्पनाविलास नही। वह एक अनुभूति का विषय है, यह वेदान्त सिद्धान्त है।
निर्विकल्प समाधि की कल्पना विशद करने के लिए " *जलाकाराकारितलवणस्य जलमात्रावभासः*"यह दृष्टान्त दिया जाता है। नमक पानी में विलीन होने पर पानी और नमक दोनों का पृथक ज्ञान नही होता। नमक पानी में होने पर भी केवल पानी ही दिखता है। उसी प्रकार निर्विकल्प समाधि की अवस्था चित्तवृत्ति को प्राप्त होने पर ज्ञाता,ज्ञेय आदि भेदभाव लुप्त हो जाते है। पानी में विलीन नमक के समान चित्तवृत्ति इस अवस्था में ब्रह्म से एकरूप होती है। लवणयुक्त जल और लवणहीन जल दिखने में समान होते हुए भी उनमें भेद होता है। इन दो जलों में जितनी भिन्नता है उतनी ही सुषुप्ति और निर्विकल्प समाधि में होती है। निर्विकल्प समाधि में चित्तवृत्ति भासमान नही होती परंतु उसका अभाव नही होता। सुषुप्ति अवस्था में  चित्तवृत्ति भासमान न होने के कारण उसका अभाव ही होता है।"निर्विकल्प समाधि" वेदान्त के अनुसार साधकों का परम प्राप्तव्य है। परंतु उसके मार्ग में "अधिकारी" साधक को भी लय,विक्षेप, कषाय और रसास्वाद इन चार विघ्नों का सामना करना पडता है। इन चार विघ्नों को परास्त करने पर ही साधक निर्विकल्प समाधि का दिव्य अनुभव पा सकता है।|| ॐ||
     " संस्कृत-गङ्गा " ( ८३ )
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" वेदान्त दर्शन "(७)
जीवन्मुक्तावस्था:-- उपरिनिर्दिष्ट निर्विकल्प समाधि के सतत अभ्यास से साधक को " जीवनमुक्त " अवस्था प्राप्त होती है।
" भिद्यते ह्रदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।" इस मन्त्र में जीवनमुक्त अवस्था का वर्णन किया है। निर्विकल्प समाधि में ब्रह्म  और आत्मा की एकता का साक्षात्कार होने पर अखिलबन्धरहित ब्रह्मनिष्ठ पुरुष लौकिक व्यवहार किस प्रकार करता है या उनका किस प्रकार अनुभव पाता है? अनुभवसंपन्न वेदान्ती भारत में प्राचीन काल में हुए और आज विद्यमान है जिन्होने "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" ,"तत् त्वमसि" ,"अहं ब्रह्मास्मि" इन महावाक्यों का आशय स्वानुभव द्वारा जाना है।
श्रीशंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित अद्वैत वेदान्त की स्थूल रूपरेखा यथाशक्ति बताने की यहाँ  कोशिश की है।  अद्वैत वेदान्त की गंभीर चर्चा करने वाले सैकडों संस्कृत ग्रन्थ प्राचीन काल में लिखे गये और आज भी लिखे जा रहे है।
कल से भिन्न विषय पर लिखाण।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
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