Friday, June 7, 2019

Mimamsa darshan

|| *ॐ*||
     " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ७४ )
" *मीमांसादर्शन*"(५) 
(११)निरातिशय सुख ही स्वर्ग है और उसे सभी खोजते है।
(१२)अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति के लिए वेद में जो उपाय घोषित है वह इह या परलोक में अवश्य फलदायक होगा।
(१३)निरतिशय सुख (स्वर्ग) व्यक्ति के पास तब तक नही आता जब तक वह जीवित रहता है। अतः स्वर्ग का उपभोग दूसरे जीवन में ही होता है।
(१४) आत्मज्ञान के विषय में उपनिषदों की उक्तियां केवल अर्थवाद है क्यों कि वे कर्ता को यही ज्ञान देती है कि वह आत्मवान् है और आत्मा कि कुछ विशेषताएं है।
(१५)निषिद्ध और काम्य कर्मों को सर्वथा छोड कर नित्य एवं नैमित्तिक कर्म निष्काम बुद्धि से करना यही मोक्ष (अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा) पाने का साधन है।
(१६) कर्मों के फल उन्ही को प्राप्त होते है जो उन्हे चाहते है।
(१७) प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद होते है:-- (१)निर्विकल्प और (२) सविकल्पक।
(१८)वेदों के दो प्रकार के वाक्य होते है:--(१)सिद्धार्थक (जैसे--सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म) और विधायक। वेद का तात्पर्य विधायक वाक्यों में ही है। सिद्धार्थक वाक्य अन्ततो गत्वा विधि वाक्यों से संबंधित होने के कारण ही चरितार्थ होते है।
(१९)वेदमन्त्रों में जिन ऋषियों के नाम पाये जाते है वे उन मन्त्रों के "द्रष्टा" होते है कर्ता नही।
(२०)स्वतः प्रामाण्यवाद:--(१)ज्ञान की प्रामाणिकता या यथार्थता कही बाहर से नही आती अपितु वह ज्ञान की उत्पादक सामग्री के संग में स्वतः(अपने आप) उत्पन्न होती है। 
क्रमशः आगे......
*卐卐ॐॐ卐卐*
डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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