Friday, June 14, 2019

Kavya sastra

|| ॐ||
       " संस्कृत-गङ्गा " ( ८४ )
आजसे नया विषय प्रारंभ कर रही हूँ ।
---------------------------------------------------------------------------------------
" काव्य शास्त्र "(१)
" काव्य दर्शन "
संस्कृत भाषा के आद्य ग्रन्थ ऋग्वेद में पर्याप्त मात्रा में काव्यात्मकता प्रतीत होती है। अनेक सूक्तों में रमणीय उपमा दृष्टान्त भी मिलते है। कुछ सूक्तों में वीररस तथा कही कही नाट्यगुण भी मिलते है। वेदो में षडंगों में  से व्याकरण और निरुक्त में शब्दों एवं उनके अनेक अर्थों का विचार मार्मिकता से हुआ है। निरुक्तकार ने ऋग्वेद की उपमाओं का विश्लेषणात्मक विचार किया है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्रों का निर्देश हुआ है। (४-३-११०/१११) इसका अर्थ  पाणिनि के पूर्वकालीन शास्त्रीय वाड़्मय में नाट्यशास्त्र की रचना का श्रीगणेश  हो चुका था किन्तु अलंकार शास्त्र या साहित्य शास्त्र का निर्देश अष्टाध्यायी में नही मिलता। व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने "आख्यायिका" नामक साहित्यप्रकार का उल्लेख किया है और वासवदत्ता ,सुमनोत्तरा, तथा भैमरथी नामक तीन आख्यायिकाओं का निर्देश भी किया है। रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत जैसे काव्यात्मक इतिहास पुराणग्रन्थों का प्रचार प्रसार समाज में अतिप्राचीन काल में हुआ था किन्तु इन सारे काव्यात्मक ग्रन्थों की रमणीयता की दृष्टि से आलोचना साहित्यिक दृष्टि से करने वाला प्राचीन ग्रन्थ भरत कृत  नाट्य शास्त्र के अतिरिक्त दूसरा नही   मिलता। नाट्यशास्त्र के विवेचन में कुछ प्राचीन ग्रन्थों के प्रमाण मिलते है किन्तु वे ग्रन्थ अप्राप्य है।
आधुनिक विद्वानों ने नाट्यशास्त्र की रचना ई. दूसरी या तीसरी शती मानी है। अर्थात् इसके पूर्व कुछ सदियों से संस्कृत के काव्यशास्त्र की निर्मिति हो चुकी थी। नाट्यशास्त्र के ६, ७ ,१७ ,२० और  ३२ क्रमांक के अध्यायों में काव्यशास्त्रीय विषयों का विवेचन मिलता है ,जो नाट्यशास्त्र  का अंगभूत है।  नाट्यशास्त्र में रसों का विवेचन सविस्तर हुआ है। विभाव ,अनुभाव ,व्यभिचारि भाव ,स्थायी भाव इत्यादि रसशास्त्रीय पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रथम उल्लेख नाट्यशास्त्र में ही मिलता है। नाट्यशास्त्रान्तर्गत रसविवेचन ही भारतीय रस सिद्धान्त का मूल स्त्रोत है।
कल काव्यप्रयोजन।
卐卐ॐॐ卐卐
डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र
|| ॐ||
    " संस्कृत-गङ्गा " ( ८५ )
--------------------------------------------------------------------------------------
" काव्यशास्त्र "(२)
" काव्यप्रयोजन "
मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश में----
" काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।।"
इस सुप्रसिद्ध कारिका में  काव्यनिर्मिति की प्रेरणा देनेवाले ६ प्रयोजन या हेतु बताए है:--(१) कीर्तिलाभ (२) धनलाभ (३)व्यवहारज्ञान (४) अशुभ निवारण (५)कान्ता के समान उपदेश (६) तत्काल परम आनंद। काव्यनिर्मिति के छः प्रयोजन सर्वमान्य है। इनमें अंतिम प्रयोजन (सद्यःपरनिर्वृति) काव्य के समान संगीतादि अन्य सभी ललित कलाओं का परम श्रेष्ठ प्रयोजन माना गया है। इन प्रयोजनों के के साथ नैसर्गिक प्रतिभा बहुश्रुतता और अन्यान्य शास्त्रविद्या ,कला
 आचारपद्धति आदि का ज्ञान भी सभी साहित्यकारों ने काव्यनिर्मिति के लिए आवश्यक माना है। विशेषतः जन्मसिद्ध प्रतिभा (जिसका लाभ पूर्वजन्य के संस्कार तथा देवता या सिद्ध पुरुष की कृपा से मनुष्य को होता है।) उत्तम काव्य की निर्मिति के लिए अत्यंत आवश्यक होती है। जन्मसिद्ध प्रतिभा शक्ति के अभाव में केवल शास्त्राभ्यास आदि परिश्रमों से निर्मित काव्य  की गणना मध्यम या अधम काव्य की श्रेणी में की जाती है।
साहित्यशास्त्र में शब्द और उसकी अभिधा, लक्षणा और व्यंजना नामक तीन शक्तियाँ तथा उनके कारण ज्ञात होने वाले वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ की गंभीरता से चर्चा हुई है।
क्रमशः आगे......
卐卐ॐॐ卐卐
डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / महाराष्ट्र

No comments:

Post a Comment