Monday, May 27, 2019

Yoga darshan

|| *ॐ*||
    " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ६९ )
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" *योगदर्शन* "(६)
" *योग के प्रकार* "(३)"कर्मयोग":-- भगवद्गीता में प्रतिपादित योगशास्त्र के अन्तर्गत कर्मयोग का प्रतिपादन आता है। वस्तुतः "कर्मयोग" की संकल्पना भगवद्गीता की ही देन है। गीता के तीसरे अध्याय का नाम है "कर्मयोग" जिसमें कर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है। तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में ज्ञानयोग और कर्मयोग नामक दो निष्ठाओं का निर्देश हुआ है। वैदिक कर्मकाण्ड और गीतोक्त कर्मयोग में बहुत अंतर है। कर्मयोग में चित्तशुद्धि और लोकसंग्रह के हेतु नियत कर्म का महत्त्व  माना जाता है। कर्मकाण्ड के अंगभूत यज्ञरूप कर्म का फल स्वर्गप्राप्ति होती है तो "कर्मणैव हि संसिद्धम्  आस्थिता जनकदयः"। इस वचन के अनुसार कर्मयोग का फल मुक्ति बताया गया है। 
कर्म से जीव को बन्धन प्राप्त होने का कारण है,कर्तृत्व का अहंकार और दूसरा कारण है कर्मफल की आसक्ति। कर्मबन्धन के इन दो कारणों को टाल कर ,अर्थात् कर्तृत्व का अहंकार छोड कर तथा किसी नियत कर्म के फल की आशा न रखते हुए कर्म का आचरण करने से कर्मबन्धन  (जो पुनर्जन्म का कारण है) नही लगता। इस कौशल्य से कर्म करने से (योग कर्मसु कौशलम्) चित्तशुद्धि होती है। उससे आत्मज्ञान का उदय हो कर कर्मयोगी को जीवनमुक्त अवस्था की संसद्धि प्राप्त होती है। 
    (४)"ज्ञानयोग":-- भगवद्गीता में ज्ञानयोग शब्द का प्रयोग हुआ है परंतु जिस प्रकार कर्मयोग  और भक्तियोग नामक स्वतंत्र अध्याय वहाँ है वैसा ज्ञानयोग नामक स्वतंत्र अध्याय नही है। ज्ञानयोग का संबंध वेदों के ज्ञानकाण्ड से जोडा जा सकता है। संन्यासी अवस्था में ज्ञानयोग की साधना श्रेयस्कर मानी गयी है। कर्मयोग  और भक्तियोग द्वारा ज्ञानयोग में कुशलता प्राप्त होती है। 
कल से मीमांसा और वेदान्त दर्शन ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र

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