Friday, May 24, 2019

Sankhya darshan

|| *ॐ*||
    " *संस्कृत-गङ्गा* " ( ५९ )
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" *सांख्य दर्शन* "(२)
अन्य सभी दर्शनों के समान आत्यंतिक दुःखनिवृत्ति तथा सुखप्राप्ति के मार्ग का अन्वेषण सांख्यदर्शन का भी प्रयोजन है। सांख्यदर्शन में १.दृष्ट (प्रत्यक्ष) २. अनुमान और ३.आप्तवचन --तीन ही प्रमाण माने है। 
प्रत्यक्ष प्रमाण के दो प्रकार :--(१) निर्विकल्पक और (२) सविकल्पक। 
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में इंद्रियगोचर पदार्थ के रूप गुण इत्यादि का ज्ञान नही होता। सविकल्पक में रूप गुण संज्ञा इत्यादि का ज्ञान होता है।
अनुमान के दो प्रकार:-- (१) वीत तथा (२) अवीत।
आप्तवचन:-- इसमें रागद्वेषादि विरहित सत्पुरुष के वचन को तथा अपौरुषेय एवं स्वतःप्रमाण वेदवचनों को प्रमाण माना गया है। 
सांख्य "सत्कार्यवादी" माने जाते है।
सांख्यवादी संसार को त्रिगुणात्मक-प्रकृतिरूप मानते है। यह जगत् को सत्य मानते है। सांख्यशास्त्रज्ञ प्रकृति और पुरुष दो तत्त्वों को आदिकारण मानते है। इसी कारण सांख्य "द्वैती " भी कहे जाते है। 
इस प्रकार सद्रूप त्रिगुणात्मक मूल प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि के अवांतर तत्त्वों का वर्गीकरण सांख्यदर्शन में अत्यंत मार्मिकता से किया है। ईश्वरकृष्ण ने यह यह वर्गीकरण एक कारिका में अत्यंत संक्षेप में बताया है। 
"मूलप्रकृतिरविकृतिः महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त। षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः।।" 
अर्थात् मूल प्रकृति में सत्व,रज, तम गुणों की साम्यावस्था के कारण कोई विकृति नही होती। बाद में उस साम्यावस्था में क्षोभ उत्पन्न होने के कारण 'महत्' आदि सात तत्त्वो(महत् याने बुद्धि) , अहंकार और पाञ्च तन्मात्राएं (शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध) की उत्पत्ति होती है। ये सात तत्त्व मूलप्रकृति के कार्य तथा अवांतर तत्त्वों के कारण भी होते है; अतः इन्हे "प्रकृति-विकृति"(याने कारण तथा कार्य) कहा है। इनके अतिरिक्त ५ ज्ञानेन्द्रियां ५ कर्मेन्द्रियां १ उभयेन्द्रिय (मन) और पांच महाभूत सोलह तत्त्वों की उत्पत्ति होती है। इनसे और किसी भी तत्व की निर्मिति नही होती। अतः इन्हे "विकार" (अर्थात् केवल कार्यरूप) कहा है। पुरुष न तो प्रकृति है न ही विकृति। इस प्रकार (१) प्रकृति(२) प्रकृति-विकृति(३) विकृति(४) न प्रकृति न विकृति इन चार वर्गों में व्यक्त अव्यक्त सृष्टि का वर्गीकरण सांख्यदर्शनकारों ने किया है।
क्रमशः आगे........
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र

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