Thursday, February 21, 2019

Brihadaranya upanishad

|| ॐ ||
" संस्कृत-गङ्गा " ( २२ )
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" बृहदारण्यकोपनिषद "
यह उपनिषद् शुक्लयजुर्वेद की कण्व शाखा के वाजसनेयी ब्राह्मण का अन्तिम भाग है।अपने नाम के अनुरूप यह उपनिषद् आकार में सबसे बडा उपनिषद् है।इसके पाँच  अध्याय ब्राह्मणात्मक खण्डो में विभक्त है।इसके प्रथम अध्याय में अश्व के रूप  में यज्ञ की कल्पना की गयी है। अन्य ब्राह्मणों में प्राण की महिमा ,ब्रह्म की सर्वरूपता आदि का विवेचन हुआ है।द्वितीय अध्याय में अजातशत्रु तथा गार्ग्य के संवाद में आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन हुआ है। चतुर्थ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य  अपनी पत्नी मैत्रेयी को परमातत्त्व का विलक्षण उपदेश देते है।तृतीय अध्याय में जनक एवं आश्वल का संवाद ,याज्ञवल्क्य  एवं गार्गी के अद्भुत  प्रश्नोत्तर अत्यन्त श्लाघनीय है । इस अध्याय में यह बताया गया है कि समस्त जागतिक प्रपञ्च ब्रह्म  के ही रूप है।चतुर्थ अध्याय में याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश एवं याज्ञवल्क्य- -मैत्रेयी संवाद संगृहीत है इसके पञ्चम अध्याय में प्रजापति ने असुरों ,मानवों एवं देवों को दम,दान और दया का उपदेश दिया है। षष्ठ अध्याय में प्रणव की श्रेष्ठता तथा संतानोत्पत्ति के विज्ञान का विवेचन किया गया है।
इस प्रकार समस्त उपनिषदों में ब्रह्मतत्त्व के चिन्तन साथ मानव जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी उपदेश दिये गये है।
"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।" "जीवो ब्रह्मैव नापरः।" यही तथ्य समस्त उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है।
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सौ.वर्षा प्रकाश टोणगांवकर 
पुणे / महाराष्ट्र
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