|| *ॐ* ||
" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *संकीर्णसुभाषित* " ( २८८ )
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*श्लोक*---
" राजन् त्वत्कीर्तिचन्द्रेण तिथयः पौर्णिमाः कृताः।
मद् गेहात् न बहिर् याति तिथिर् एकादशी भयात् ।। "
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*अर्थ*---
एक दरिद्री कवी दान मांगने के राजा के पास गया । वहाँ उसकी स्तुति करके उसने अप्रत्यक्ष उससे याचना की -- " हे राजा आपके किर्तिरूपी चन्द्र के कारण सब तिथियाँ पौर्णिमा हो गयी है , ( मै भी पौर्णिमा हो जाऊंगी और नष्ट हो जाऊंगी ) इस भय से एकादशी यह तिथी मेरे घर से बाहर ही नही जा रही है ।
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*गूढ़ार्थ*----
सुभाषितकार ने कितने करूणयुक्त स्थिति पर भी विनोद और स्तुति का मुलामा चढ़ाया है । जो कवी दरबार में गया उसे याचना करने की लज्जा भी आ रही है किन्तु धन की आवश्यकता भी उसे है ही। राजा को पौर्णिमा के प्रकाश की उपमा देकर राजा के धवल और शुभ्र कीर्ति की स्तुति उसने की और राजा के दानवीर की स्तुति उसने सब तिथियाँ मतलब राज्य के लोग सुखी है यह कहकर की किन्तु मेरे घर में अभी भी *एकादशी* ही छुपकर बैठी है इससे राजा को अपनी दरिद्रता का आभास दिलाया । एकादशी मतलब मेरे घर में सब को उपवास ही करना पड रहा है यह उसके कहने आशय।
सब जगह आपका दान पोंहच गया लेकीन मैं अभी भी वंचित ही हूँ यह उसके कहने का आशय था ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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