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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *चित्र--विचित्र* " ( २९६ )
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*श्लोक*----
" अत्तुं वाञ्चति वाहनं गणपतेराखुं क्षुधार्तः फणी
तं च क्रौञ्चपतेः शिखी ; स गिरिजासिंहोऽपि नागाननम् ।
गौरी जह्नुसुतामसूयति कलानाथं कपालनलो
निर्विण्णः स पपौ कुटुम्बकलहादीशोऽपि हलाहलम् " ।।
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*अर्थ*----
( घर घर की कहानी ) आपके और हमारे संसार में तो गृहकलह है ही । बिलकुल वैसा ही महादेव या महाईश जो परम ईश्वर ऐसे जिसके नाम है उस शंकर के भी घर में है ।
शंकर के गले में जो सर्प है वह गणेशजी का जो वाहन चुहा है उसे खाने को दौडता है । और उल्टा उस सर्प को कार्तिकेय का वाहन मयूर खाने को देखता है । और इधर पार्वती का वाहन सिंह गणेशजी को हाथी समझकर खाने की इच्छा करता है । पार्वती गङ्गा का मत्सर करती है । और कपाल पर जो अग्नी है वह मस्तक पर जो चन्द्र विराजमान है उसका मत्सर करता है ।
इस सब गृहकलह से उद्विग्न होकर ही शंकर ने हलाहल प्राशन किया ! फिर सामान्य जनों की क्या कथा ?
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*गूढ़ार्थ*----
गृहकलह तो हर घर में होता ही है लेकीन परमेश्वर के घर मे भी वह नही चुकता यही सुभाषितकार ने बडे मजेदार ढंगसे हमे बताया है । पर सही में परमेश्वर के घर में भी सभी के वाहन एक दूसरें के विरूद्ध ही है । इससे उद्विग्न होकर तो शंकर ने हलाहल प्राशन नही किया ?
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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