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" सुभाषितरसास्वादः "
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" सामान्यनीति " ( २६२ )
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श्लोक---
शुश्रूषा , श्रवणं चैव , ग्रहणं , धारणं तथा ।
ऊहापोहो, अर्थविज्ञानं , तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ।।
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अर्थ---
सेवा , श्रवण , ग्रहण करना , स्मरण में रखना , तर्क , वितर्क ( ऊह ) सिद्धान्त , निश्चय ( अपोहा ) , अर्थज्ञान , और तत्त्वज्ञान यह बुद्धि के आठ अंग है ।
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गूढ़ार्थ---
सुभाषितकार ने बुद्धि के अंग बताते हुए कहा है कि --
सेवाभाव मतलब नम्रता अगर आप में है तो आप किसिसे भी ज्ञानग्रहण कर सकते हो और आप उद्धट हो तो कोई आप के पास भी भटकेगा नही इसलिये सेवा यह बुद्धि का प्रथम लक्षण बताया है।
अच्छा श्रोता होकर श्रवण भक्ति करनी चाहिए । जो श्रवण किया वह ग्रहण भी करके रखना चाहिए और बाद में वह स्मरण में भी रखना चाहिए। उसको बार बार याद करके शंका निरसन करके तर्क वितर्क भी करना चाहिये । फिर उसे अभ्यास करके निश्चय स्वरूप स्विकारना चाहिए । आखिर में अर्थज्ञान और तत्त्वज्ञान भी आना ही चाहिये सच में जिसे नीर-क्षीर विवेक आ गया उसकी ही बुद्धि परिपक्व कहालेगी । सुभाषितकार ने हमे सरलता से बुद्धि के आठ अंग बतलायें है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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