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" *सुभाषितरसास्वादः* "
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" *विद्यानीति* " ( २८३ )
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*श्लोक*----
" जडास्तपोभिः शमयन्ति देहं , बुधा मनः सर्वविकारहेतुम् ।
श्वा मुक्तमस्त्रं दशतीह कोपान्मोक्तारमुद्दिश्य हिनस्ति सिंहः ।। "
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*अर्थ*----
उफन कर आनेवाले कामक्रोधादि----- भावनाओं उद्रेक संयत करने के लिये अनपढ़ या गंवार लोग व्रतवैकल्य या तपश्चर्या के द्वारा इन्द्रियों को ही शांत करते है किन्तु मर्मज्ञ ज्ञानी लोग उसी साधन से इन्द्रियों को पीडा ना देते हुए , जो इन्द्रियों का प्रेरणा स्थान और विकारों का मूल उद्गमस्थान *मन* है उसी को शांत करते है । मतलब इन्द्रियाँ तो निष्प्रभ हो ही गयी न !
जैसे कुत्ते पर किसी ने कुछ फेंक कर मारा तो वह कुत्ता उस चीज को ही काटते बैठेगा किन्तु अगर सिंह पर गोली या बाण छोडा जाये तो सिंह उस वस्तु को ध्यान में न लेते हुए वह फेंकने वाले की तरफ कूदकर(झेप) उसकी ही जान ले लेगा ।
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*गूढ़ार्थ*---
अज्ञानी और ज्ञानी इसमें का भेद यहाँ पर सुभाषितकार ने हमे बताया है । व्रतवैकल्य या तप करके शरीर को कष्ट पोहचाने वाले लोग हमे समाज में बडे पैमाने पर मिलते ही है । सुबह से शाम तक उपवास करेंगे एक बूँद भी पानी नही पियेंगे , तपश्चर्या भी कडी करेंगे मगर इन लोगों का मन इनके वश में सही में रहता है क्या?
श्रीमद्भगवद्गीता में भी अर्जुन जैसे महायोद्धा को यह प्रश्न था ही --
" मन प्रमाथीवत् चञ्चलः " । तो सामान्य लोगों का कहना ही क्या?
लेकीन जो ज्ञानी लोग होते है वह पहले मन को काबू में करते है तो फिर अपने आप इन्द्रियाँ निष्प्रभ हो जाती है ।
बुद्धिमान और बुद्धिहीन इनमें यही तो बडा फर्क होता है ।
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डाॅ. वर्षा प्रकाश टोणगांवकर
पुणे / नागपुर महाराष्ट्र
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